________________
[ ४६ ] सब समान ही हैं। इसी चैतन्य के दर्शन से भाव में भी समता होती है।
१५-८५७. निस्पृह आत्मा ही समता रूप अमृत के पान
करने का अधिकारी है!
१६-८५८ संसार में कोन तेरा है ? फिर किसके लिये
राग दंप के गड्ढों में गिरना रहना चाहता है ? भाई ! रोग दूप के गड्ढों की बीच (तटस्थ-मध्यस्थ) . जो समता की गली है उस से चलकर अपने स्वरूप गृह में शांति से रह ।
१७-८६३. आत्मा के स्वरूप को देखा। बाहय में क्या रखा ? बाहय तो सब क्षणिक है, माया है, पर्याय है,
आत्म स्वरूप की दृष्टि में सब प्राणी समान हैं, उस समानता को देखा और सम्ता पाया।
२८-८६४. जगत का ठीक स्वरूप समझो और अपना भी,