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मोल ली है, यह है तो स्वयं सुखी परन्तु मानता है पर
से या होना चाहता है पर से । इस अज्ञानरूप मोहिनी • धूल को हटावा और मुझे अपने में तन्मय करे।
१२-३२८ सर्व प्राणियों में यथार्थ मैत्री भाव चाहते हो तो
सब को अपने स्वभाव के माना, क्योंकि समान माने बिना मैत्री भाव · नहीं ठहरा''और मैत्री भाव के बिना अशान्त ही रहोगे।
१३-२६५. आत्मन् ! तू विश्व के प्राणियों को अपने समान मान, क्योंकि उन्हें यदि छोटा मानोगे तो अभिमान के कारण संसारगर्त में पतित ही रहोगे और यदि बड़ा मानोगे तो दीन बनकर स्वभाव से च्युत ही रहोगे।
१४-७८५. मुक्त जीव तो सर्व समान हैं ही, परन्तु यहां
भी हम किसे छोटा और किसे बड़ा कहें ? क्योंकि पुण्य पाप के उदय सब क्षणिक हैं जो आज पुण्य के उदय में बड़ा बना है--पुण्य क्षीण हाजाने पर तुच्छ हो जाता और जो आज छोटे हैं-भविष्य में बड़े भी हो जाते हैं, तुम तो चैतन्यमात्र का देखा उसको अपेक्षा