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सूठ बड़प्पन में आकर अथवा विशेष रागो बनकर परपरिणति के परिश्रमरूप क्लेशों को ही सहता रहूंगा ।
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१२- ३५१. निन्दाश्रवण से होने वाले क्लेश का मिटाना तो सरल है परन्तु प्रशंसाश्रवण से किये जाने वाले उपक्रमों से होने वाला क्लेश मिटाना कठिन है, अतः मनोहर ! प्रशसा जाल से बचो किसी के चक्र में मत श्रावो
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१३- ३६१. किसी के निन्दा के शब्द मत कहो क्योंकि उस से तुम्हारा उत्कर्ष नहीं और फिर संसार में अनंत प्राणी हैं किस किस की समालोचना करते ? उनमें से एक वह भी है, अथवा तुम समालोचना के अधिकारी नहीं क्यों कि तुम स्वयं समालोच्य हो अन्यथा तुम में परनिन्दन दोष की स्थिति नहीं रहती ।
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१४-३६२. अपनी प्रशंसा के शब्द मत सुना क्योंकि ये शब्द आत्मघात में निमित्त होने के अतिरिक्त प्रशंसक से हो जाने वाले सम्बन्ध के हेतु विपत्ति और चिन्ता