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[ ३३ ] और जब प्रशंस्य होगा तब कोई विकल्प नहीं अतः अभिमान था सन्मान की चाह को मूल से नष्ट कर दो, यह तेरा महान् शत्रु है।
8-३२३. स्वप्रशंसा में रुचि होना ही विषपान करना है
और स्वयं को ज्ञानमान अनुभव करना ही अमृतपान करना है।
步步 १०-३२४. जब कोई तेरी प्रशंसा करे तब यह तो विचारो
कि यह तो मेरे बाहय गुण ही वर्णन कर रहा है मैं तो अनंत ज्ञान, दर्शन शक्ति, सुखसम्पन्न निर्विकल्प, ज्ञायकभावमय योगीन्द्रगोचर हूँ शुद्ध परमात्मतत्त्व हूँ, इस तुच्छ प्रशंसा में मेरा क्यो हित और वहप्पन है, इस बेचारे को मेरी (आत्मा की) महत्ता ज्ञात नहीं है ।
११-३२५. अथवा यह विचारो-जैसा यह वर्णन कर रहा
है ठीक वैसा निर्दोष तो मैं हूँ नहीं, केवल इसके वर्णनमात्र से तो फल (आत्मशान्ति) मिल नहीं जायना बल्कि यह प्रशंसा मेरे प्रति शत्रुता का काम करेगी अर्थात् इससे मैं अपने दोषों पर दृष्टिपात न कर झूठ