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[ १६ ] 8-१०७. जहां व्यवहार को निश्चय का कारण बताया
वहां "व्रतादि क्रियायें ही मोक्षमार्ग है ऐसी दृष्टि" यह व्यवहार का अर्थ नहीं करना क्योंकि वह तो मिथ्यात्व ही है किन्तु "निश्चय की प्राप्ति के अर्थ हो जाने वाली व्रतादि क्रियायें व धर्मध्यानरूप मन, वचन, काय का व्यापार" यह अर्थ करना, यह व्यवहार निमित्त से कारण है।
१०-१७८, सुरणे के आभूपण का उपादान सोना ही है
परन्तु ढाचे में ढलने का निमित्त पाये बिना वह अवस्था नहीं होती, इसी प्रकार ज्ञान की विरागता का उपादान ज्ञान ही है पर दीक्षा, शिक्षा, आत्मसंस्कार, सल्लेखना
और उत्तमार्थ आदि तत्साधक व्यवहार में ढाने बिना वह अवस्था नहीं होती फिर भी उस अवस्था की प्राप्ति के लिये दृष्टि उपादान पर होती है तब ही वे व्यवहार भो तत्साधक कहलाते हैं।
११-२४३. यदि व्यवहार सर्वथा अभूतार्थ है तो क्या
कारण है जो अहिंसा, सत्य, पूजा, वदनादि में धर्म का व्यवहार किया जाता है और हिंसा, झूठ आदि में धर्म