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[ २८० ] बाह्य तो बाह्य ही है, बाह्यचेष्टा से अधीर मत बनो; सहिएणुता तुम्हारा सच्चा मित्र है।
६-८२५. सहनशीलता में तुम वृक्ष की तरह बन जावो ?
आत्मन् ! तू तो गुप्त ज्योति है; तेरा होता क्या... विगाड़...? क्यों अन्यमनस्क होता ।
७-६ : ७. यदि शरीर पर कष्ट मिल गया तो तू क्या घुर
गया ? यदि दूसरों ने सन्मान न किया तो तेरा क्या गिर गया ? किसी ने तेरे विरुद्ध कुछ शब्द कह दिये तो तेरा क्या छुड़ा लिया १ बता !...सहिष्णु बन, यहाँ तेरा कोई नहीं है किस पर नखरे करता ?
+ ॐ ॐ