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अवस्था रहे अपनी गलती खोजते रहो ।
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४–६६. जीव का स्वार्थ स्वास्थ्य है, अर्थात् सदा के लिये आत्मा में स्थिति है, भोग नहीं वह तो विनाशीक है, तृष्णा का बढ़ाने वाला है, संताप का उत्पादक है । 5 ॐ फ
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५ - १११. अपने लक्ष्य में आत्मस्वरूप बना रहना एक गढ़ है यदि तुम पर विपदा रूप शत्रु आक्रमण करे तब अपने उपयोग को उस गढ़ में गुप्त कर दे फिर तू अजेय है |
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६ - ११४. अपने लक्ष्य में आत्मस्वरूप बना रहना सुधा सागर है यदि तुम्हें कभी तृष्णा का दाह जलावे तत्र उपयोग की डुबकी उस अमृतसागर में लगा दे फिर तू मर और शान्त ही रहेगा ।
ॐ ७ - २६२. किसी भी कार्य को तन, मन धन सर्वग्व लगा कर भी किया हो तब भी वह पर है उसे छोचना ही होगा | आत्मस्वरूप में उपयोग रमाये विना असन्तोष नष्ट न होगा | अतः जो मार्ग जान चुके हो उस पर