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५७ आत्मसेवा
१-६८. केवल अपना आत्मा ही विश्वास्य है। जो आज मेरे अनुकूल हैं वे कभी प्रतिकूल भी हो सकते, अथवा अनुकूल होने के काल में भी अभिप्राय सब मिलते हो यह असम्भव बात है।
२-७१. माना कि दिखने वालों में बहुत से साधर्मीजन हैं पर तुम साधर्मी जैमी रुचि कर तो प्रेम नहीं करते तुम्हारा राग तो व्यवहार प्रधान है अरे मूढ अपना उपकार करते हुए यदि व्यवहार करे तब तो ठीक हैअन्यथावृत्ति में तो तेरा उत्थान है ही नहीं, अतः शुद्ध परिणति के ध्येय से कभी दूर मत होओ।
३-७२. जब तक पर पदार्थ पर दृष्टि है पर पदार्थ के आश्रय
से अपनी परिणति विभिन्न बनाते हो तब तक अपना उपकार हुआ न समझिये, और जब स्वोपकार हो चुकेगा तव पर दृष्टि मिट जावेगी, इसलिये जब तक सविकल्प