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[ २५८ ] चाह का संकेत न करके ग्रहण कर लेना चाहिये ।
५-१८४. शास्त्रसभा में जो शब्द निकलते हैं वैसे शब्द
यदि एकान्त में अपने प्रति निकल जाँय तब तो ज्ञानी है अन्यथा ग्रामोफोन है।
६-१८७, प्रभो ! यदि परोपकारिणी संस्था या सभा का काम लेता हूं तो चिन्तातुर हो जाता और सोच होता कि ये तो तेरा स्वभाव नहीं क्यों भार लादते ? यदि छोड़ता हूं तब अशुभ विकल्प होने की संभावना है तब उससे निवृत्त होने के अर्थ शुभ आश्रय पाने को तड़फड़ाता, भगवन् ! यह कैसा खेल है-कैसा नाच है। क्या होनहार है ? मैं तो अपना भविष्य आपके ज्ञान को सौंप चुका अब तो आप हो प्रमाण हैं।
॥ ॐ ॥ ७-१८८, क्या यह मोठी वेदना है...या संसार का नाच है ? या सरागसम्यग्दृष्टि की लीला है ? भगवन् ! मैं तो अत्यन्त छमस्थ हूं क्या जानू ! मैं तो विकल्पों के . परिश्रम से थक गया हूँ, आप को शरण में आराम चाहता हूँ।
卐 ॐ ॥