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नहीं।
--६०६. मेरी सहज परिणति ही अमृत है, जो दूसरे के
आश्रय से बात हो उसकी क्या इज्जत ? मैं स्वयं ही सुखपूर्ण हूँ। मेग अपने आप जो हो सो ही हो क्योंकि मैं स्वयं सत् हूँ रक्षित हूँ अविनाशी हूँ। अाशा का क्लेश ही क्यों हो।
६-६१०. परिश्रम करके क्लेश बटोरते ? कितनी मूढ़ता है ! 'परिश्रम और क्लेश भी !! दोनों को मिटावो, शान्त होओ, सहज परिणत होप्रो; जगर धोखा है, सर्व भिन्न हैं, तू तो अकेला ही है ।
१०-६१६. आत्मा की सहन परिणति ही भगवती है
जिसके प्रसाद से आत्मा की अनन्त विजय होती है।
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