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[ २४३ ] ८- ६०२ प्राणीमात्र की अहिंसा का भाव न रह कर केवल किसी समाज की, जाति की देश की, मनुष्यमात्र आदि की हिंसा व दया का भाव रखना भी एक व्यामोह का फल है, वह व्यामोही भी वास्तविक तत्त्वज्ञान से दूर है, तत्त्वज्ञान पूर्ण अहिंसा लक्ष्य कराता है ।
फ ॐ फ
६-६०३ हिंसा से ही आत्मा
सत्य सुखी हो सकता
अपनी शक्ति को न छुपा कर हिंसा की साधना में प्रयत्न करो । सब से पहिले तत्व ज्ञानी बनो फिर इन्द्रिय संयम पालो और कपायों से दूर रहने का प्रयत्न करो । 5 ॐ फ्र १०-६०६, अहिंसा ही धर्म है उसके परिणमन से ही आत्मा सुखी हो सकता, हिंसा से दूर रहने में ही इतना संसार व्यतीत हुआ और आपदायें पाई । अहिंसा है- आत्मा के सहज स्वभाव का विकास |
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फ्रॐ फ ११- ६१६. हिंसा करनेवाला भी तो मरता ही है, वह किस की हिंसा करता है ? वह प्राणी दो दिन पहिले शरीर छोड़ गया, जो हिंसा कर रहा वह दो दिन बाद मरा; मरना तो उसे भी पड़ता परन्तु हिंसक अपने मरण का कुछ