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५२ अहिंसा
१-५१६. मोह राग द्वेष से रहित होना तथा ज्ञान का सहज परिणमन होना ही आत्म जागृति है, इस ही अवस्था का नाम पूर्ण अहिंसा है इसके फलं स्वरूप अन्य
आत्माओं को उसके निमित्त से वाधा नहीं होती इस लिये यह सुसिद्ध है कि आत्मीय सुख पाना अहिंसा का अन्तरङ्ग फल है और अन्य जीवों को बाधा न होना अहिंसा का बहिरंग फल है, आत्मा का स्वभाव अहिंसक है, स्वभाव पाने का उपाय अहिंसा है स्वभावरत हो जाने की दशा अहिंसा है, इसे ही ध्येय बनायो।
२-५२०. संसार में जितने द्रव्य हैं वे अपने अपने स्वरूप में ही परिणमन करते हैं, दूसरे द्रव्य के गुण पर्याय में नहीं परिणमते, न उनके स्वरूप का बिगाड़ करते अतः इस वस्तु स्वातन्त्र्य की दृष्टि में उपादान तथा पर का स्वरूप न बिगाड़ने के कारण सारा जगत अहिंसामय है परन्तु इससे विपरीत दृष्टि होने पर दृष्टि करने वाला ही अशान्त और विपन्न हो जाता है। अजीव पदार्थ का