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जी आदि अनेक नामों के आश्रय से की जाती है । ध्यान में स्वरूप विरुद्ध नहीं होना चाहिये ।
१०-७७३. वह ज्ञायक भावमय परमात्मा सबका है सत्र में
है उसके अनुभव के लिये तरसोगे, मचलोगे, उसी का ध्यान रखोगे तो उसका दर्शन अपश्य होगा।
११-७७४. इच्छाओं से चित्त अस्थिर होता, अस्थिर चित्त
में शुद्धात्मा का ध्यान अनुभव नहीं हो सकता अतः परम-अात्मा के अवलोकन के अर्थ इच्छात्रों को हटा दो; अरे ! फिर बतावो तो सही इच्छा किसकी करते हो ? क्या तेरा है?
१२-२६३-नीच विचारों को स्थान मत दो अन्यथा यही विचार कुध्यान का रूप लेकर अपने अनुरूप प्रवृत्नि करा के तुम्हें भ्रष्ट पतित व दुःखी कर देंगे।
१३-५६. परमात्मा के स्मरण में या निज शुद्धात्मा के
स्मरण में ध्यान तो शुद्ध द्रव्य का है पर एक पराक्ष है एक स्वापेन है।