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४६ श्रद्धा
१-६६५. जीव के उद्धार का मूल कारण श्रद्धा है, श्रद्धा
अपनी ठीक ही रहे फिर तो यदि कदाचित् प्रवृत्ति आत्मचरित से वाह्य भी हो तो भी सुधार होकर रहेगा।
卐 ॐ ॐ २-६६६. निम्नांकित वातों में श्रद्धा अकाट्य होना चाहियेः१-मैं अनादि अनंत हूँ, शरीरादि सब पदार्थों से
न्यारा हूँ। २-अपनी ही ज्ञानपरिणति का कर्ता भोक्ता हूं वाह्य का
नहीं। ३-मेरे में जो विभाव (विषयकषाय के परिणाम) उत्पन
होते हैं वे मेरे हो घात के लिये होते हैं, वे नैमित्तिक हैं मेरे स्वभाव नहीं हैं, मैं उनका स्वामी नहीं हूं। ४-जब जिसको जिस प्रकार जहाँ जो अवस्था होना है वह होकर ही रहती उसे मेटनेवाला कोई नहीं है (अतः आगामी चिन्ता करना या कोई वाञ्छा करना