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[ २२७ ] इन दोनों का एक अर्थ है सिर्फ शब्दभेद है पर यह शब्दभेद है पर यह शब्दभेद, दो कन्पनायें तैयार कर. देता, पूर्ति की कल्पना से अज्ञान व आकुलता की वृद्धि और नाश की कल्पना से संतोष व सुमति की वृद्धि है।
ॐ ॐ ॐ १८-४६५. आदर, सेवा, कीर्ति, स्वादुभोजन की चाह एवं
दूसरे की आशा वे साक्षात् विपदायें हैं, इनमें फंसा हुआ व्यक्ति चाहे कितना ही प्रसिद्ध हो चाहे मायावृत्ति के कारण उसे लोक न पहिचान सके परन्तु वह सुखर नहीं, पतित है।
卐 ॐ ॥ १६-५१२. कोई पदार्थ न स्वयं इष्ट है न अनिष्ट है तुम्हारी
इच्छा ही की सब सब करतूत है, जब इच्छा ही तुम्हारा विगाड़ करने वाली है तो क्या इच्छा में आये हुए स्कन्ध तुम्हारा सुधार या विगाड़ कर देगे ? नहीं, नहीं। इच्छा ही तुम्हारा अनर्थ करने वाली है।
२०-६२६. इच्छा करना अपनो आत्मा पर अन्याय करना है जिसकी इच्छा की जाती उसका परिणमन उसके होनहार से होता, इच्छा से मात्र अपना बिगाड़ करने के