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[ २०६ ] कोशिश मत करो । हाँ साधर्मी जन के मेल होने पर हित मित प्रिय व्यवहार करके अपने कर्तव्य का पालन करो।
॥ ॐ ॐ ३-३७५. उत्तम भोजन वह कहलाता है जो शरीर में रोग
न करे और न प्रमाद बसाये सो उपेक्षा भाव से शुद्ध किन्तु नीरस भो भोजन किया जावे तो उसमें वह गुण है अतः राग को जलाञ्जलि दो बहुत दिन इसके चक्र में आकर विपपान किया।
४-३७६. भोजन करते समय यह सोचो कि जो भी वस्तु हो चाहे वह घृत दुग्ध फल शक्कर हो या नमक अन्न छाछ पानी हो सभी पुद्गल ही तो हैं, समान हैं, प्रत्युतनीरोगता का साधन होने से अन्न छाछ पानी आदि लाभदायक हैं अथवा संसार की पर्याय गुजारना है, वस्तुतः अात्मा का स्वभाव तो अनाहार है ।
卐 ॐ 卐 ५-३७८D. अनासक्ति की परीक्षा इष्ट अनिष्ट द्रव्य के लाभ होने में होती है।
ॐ ॐ ॥