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[ १६७ ] वाला मनुष्य मुग्ध है.। .
॥ ॐ 卐 ५-७०३. रे आत्मन् ! तू तो स्वयं ज्ञानानंदमय है फिर शांति, सुख के लिये पर की क्यों आशा कर रहा है ? जितने भी अनंत सिद्ध हुए हैं वे भी पहिले तुझ जैसे संसारी थे परन्तु स्वाधीन उपाय से-आत्मा में स्वयं रमण करने से अनन्त सुखी होगये।
६-३१२. अाशा-तृष्णा-का स्वभाव ही आकुलता है चाहे वह धार्मिक कार्य की भी हो अतः प्रत्येक कार्य में ज्ञाता द्रष्टा हो बने रहो।
ॐ ॥ ७-२८. गृहरत रहना उतना बुरा नहीं जितना कि ब्रह्मचारी होकर गृहविषयक वाञ्छा करना बुरा है ।
॥ ॐ 卐 ८-८११. जब तेरा उपयोग किसी की कोई आशा नहीं
करता तब जैसा धनी तैसा गरीब, विकल्प की आवश्यकता क्या ? नैराश्य मय सुधासागर में मग्न रह कर शान्त और सुखी बनो।
卐ॐ 卐