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कार्य के करने में, प्रशंसा में, किसी के द्वारा की गई सेवा में, किसी के मधुर वचनों में भले ही सुखाभास हो परन्तु पूर्ण श्रद्धा व भावना करो - कि लेश भी राग आत्मा का हित है ।
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११ - २५१. प्रयोजन न होने पर भी अपनी प्रकृति से विरुद्ध अन्यकृत कार्य देखा नहीं जाता, यह द्व ेष भी रागमूलक है क्योंकि उसे नैमित्तिक प्रकृति ( वैभाविक परिणति ) से राग हुआ है; यदि उस द्वेषज दुःख से बचना चाहते हो तो नैमित्तिक परिणति रूप अपनी प्रकृति को हेय मानकर उससे राग छोड़ो ।
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१२- १२३. कर्म के फल में राग करने वाले को कर्म फल देवेगा ही अतः मुमुक्षु को कर्म के फल में राग नहीं करना चाहिये ।
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१३ - १०६. उतना भयंकर द्वेष नहीं जितना भयंकर राग है । द्व ेष तो ऊपरी चोट से आघात करता परन्तु राग भीतरी और मुदी चोट से आघात करता है, द्व ेष भी