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[ १८१ ] धर्म क्या किसी पुरुष के पास है ? धर्म क्या किसी उत्सव में है ? धर्म तो आत्मा की वीतराग परिणति है वह अपनी ही परिणति है अतः धर्म को अपने में देखो।
6-८७०. धर्म का स्वरूप जाने विना जहां चाहे धर्म को इंढने की परेशानी हो जाती है-अरे ! कुछ समय यथार्थ स्वरूप को जानकर अधर्म परिणति (कपायभाव) से दृष्टि हटाकर आराम से ठहर जा फिर जान ले-धर्म क्या है ?
१०-६०८. धर्म वह है जो संसार के दुःखों से छुड़ा देवे;
दुःख है आकुलता!-वह होती मोह रागद्वप से तब... यही तो सिद्ध हुआ कि मोह रागद्वप न करना धर्म है अथवा मोह रागद्वप ही दुःख स्वरूप है, तब...यही तो सिद्ध हुआ कि दुःख न करना धर्म है । तू दुःख और सुख का सत्य स्वरूप समझले-सघ मार्ग ठीक हो जायगा।
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2008-e