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३३ संतोष
१ - २६७. जबरदस्ती मनाई गई बात से वक्ता और श्रोता दोनों का लाभ नहीं अतः कोई मेरी बात मान ही जाये ऐसा असंतोष मत करो ।
फॐ फु
२- ३१६. किसी से भी सब लोग खुश नहीं हो सकते श्रतः अपने संतोष से संतुष्ट रहना बुद्धिमत्ता है ।
ॐ
३ - ५५४ श्रात्मन् ! तूने ऐसी मोहमदिरा पी कि संतोष करना तो आजतक सीखा ही नहीं यदि इष्ट वस्तु मिली या इष्ट कार्य हुआ तो उससे आगे फिर बढने लग जाता ! यदि तू ऐसा सोचे कि अमुक कार्य होने के बाद एकदम निवृत्तिमार्ग में लगू ँगा तो यह विकल्पमात्र है इसका प्रमाण यह है कि अब तक भी इस ढचरा में निवृत्त नहीं हो सका ।
फॐ ४ - ६४२, अपनी ही अज्ञानता से दुखी होते हो, दुखी करने