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__ [ १६३ ] ५-४२०. समतासु धापान के अर्थ क्षेत्र, काल, साधन, अर्थ
की क्या चिन्ता करते ? जहाँ बैठे हो वहीं अपने द्रव्य को निहारा, तुम में न पर का प्रवेश है और न पर में तुम्हारा प्रवेश है, इतने ही मात्र हो व रहोगे, विपत्ति तो परद्रव्यगतवुद्धि है, सर्व ख्याल छोटी और सुखी हो लो।
६-५१७. "प्रत्येक वस्तु केवल अपने स्वरूप से रहे तब
सुन्दर है" इस न्याय से आत्मा यदि धन से रहित हो जाय या जन से रहित हो जाय, अकेला रह जाय या कोई उसे न समझे व न माने तो इसमें खराबी क्या
आई ? प्रत्युत तत्त्वपथ पर जाने के लिये उसे अनुकूल । विविक्त) वातावरण मिलने से प्रात्मीय सुख शान्ति पा लेने का सुन्दर अवसर मिल गया, अतः उक्त अवस्थायें यदि हो जाँय तब अपने का धन्य ही समझे हीन समझना या चिन्तित होना मूखों का कार्य है ।
७-६२७. धार्मिक समाचार (वर्णन) के अतिरिक्त अन्य बात लिखना या बोलना राग व चिन्ता के कारण है।
८-७१७. जो पुरुप अपने पद के विरुद्ध कार्य न करेगा वह