________________
[ १२५ ] ओर ही देखता रहे ऐसा कौनसा पशु है ?...उस वृत्ति को छोड़ा, उसका मूल जो पर वस्तु को तृष्णा है उसे त्यागो। मरना तो एक दिन होगा ही, साथ कुछ नहीं जाता।
ॐ ॐ ॐ १०-८७३. लोभ का बाप परिग्रह है, परिग्रह होने पर कुवि
चार हो जाते हैं अर्थात् परिग्रही कुभावों का संग्रह करता रहता है । अपने ज्ञानस्वरूप से अतिरिक्त कहीं कुछ अपना मत मान, फिर लोभ कहाँ टिकेगा ? भाई देख ! अपना क्या है ? फिर लोभ का भूत शिर क्यों चढ़ाते ?
॥ ॐ ॥ ११-६१८. पर पदार्थ का लोभ कर कौन रहा है ? वे तो
जुदे ही हैं, मानो तो अपने नहीं होते, न मानो तो अपने नहीं होते; यहाँ तो सर्वत्र लोभकषाय का लोभ हो रहा है-लोभकपाय को नहीं छोड़ना चाहते; पदार्थ तू छूटा हुआ ही है।
卐 ॐ ॐ