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[ ६० ] __ अनहोनी नहिं होसी कहूं काहे होत अधीरा रे ॥" यदि इस पद्य का दुरुपयोग करके स्वच्छंट बनोगे तत्र तो श्रद्धा से भी दूर होगये; ज्ञानमात्र आत्मा का लक्ष्य रखना तुम्हारा कर्तव्य है।
+ ॐ ६-२६६. मोही आत्मा अपने राग परिणाम से ही दुःख का
वेदन करता है, किसी को दुखी करने वाला कोई अन्य नहीं है।
७-३२६. विपति और दुःख की अवस्था में अपने अपराध पर दृष्टि डालो, पर में कुछ अन्वेषण मत करो। अपने अपराध के समझने पर आकुलता व अशान्ति अवश्य हतवला हो जायगी।
卐 ॐ + ८-३२७. सन्मार्ग पर चलते हुए व सद्व्यवहार करते हुए भी यदि किसी के निमित्त से आपत्ति आजावे तब भी अपना अपराध सोचो । तात्कालिक अपराध न होने पर भी यह अपराध तो सोचा जा सकता है जो मैंने पूर्व ऐसा कर्म उपार्जित किया जिसके उदय से सन्मार्ग व सद्व्यवहार का सेवन करते हुए भी आपत्ति उपालंभ आदि का लक्ष्य बनना पड़ रहा है-, ऐसा सोचने से पर के