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[ ८८ ]. न कुछ भाग ही सकूगा, इसलिये पर की चिन्ता करना उन्मत्तचेष्टा है।
२६-६२२: लौकिक जनों से, कार्यों से, उपकारों से, दृष्टि
हटाने वालों का कोई जन कह देते हैं कि यह तो स्वार्थ बुद्धि है, निर्दयता है, कायरता है, परन्तु सोचो तो सही ये पर का काम ही क्या कर रहे थे, जब भी ज्ञान में परिणमते थे अब भी परिणमते हैं जो करते थे सोही अब कर रहे हैं, केवल भ्रम ही मिटा लिया।
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