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८.
११ आत्मशक्ति
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१ - ७३५. आत्मन् ! तू अनन्त शक्तिमय है, बकरियों में पले हुए सिंह के बच्चे को तरह दीन क्यों बन रहा है ? सर्व परपदार्थ की तृष्णा तज और स्वतन्त्रता से अपने में विहार कर |
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२- ७१२. भावों की निर्मलता ही यात्मबल है, यही मुख स्वरूप है |
ॐ
३-७०६. गगद्वेष बढ़ाना ही आत्मबल घटाना है और समता भाव करना ही आत्मबल बढ़ाना है, आत्मबली सुखी है, इस विनश्वर लोक में तेरा कौन साथी है ? कौन शरण है ? क्या सार है ? किसके लिये निज पवित्र ज्ञान दृष्टि से च्यूत होकर परदृष्टिरूप विपरीत घोर एवं व्यर्थ परिश्रम करते हो ? शान्त होओ और अपने आप ही में रहो ।