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________________ अष्टपाड ३३७ विषसे पीड़ित हुए जीव संसाररूपी अटवीमें निश्चयसे भ्रमण करते रहते हैं।।२२।। णरएसु वेयणाओ, तिरिक्खए माणुएसु दुक्खाई। देवेसु वि दोहग्गं, लहंति विसयासता जीवा।।२३।। विषयासक्त जीव नरकोंमें वेदनाओंको, तिर्यंच और मनुष्योंमें दुःखोंको तथा देवोंमें दौर्भाग्यको प्राप्त होते हैं।।२३।। तुसधम्मंतबलेण य, जह दव्वं ण हि णराण गच्छेदि। तवसीलमंत कुसली, खवंति विसयं विसं व खलं ।।२४।। जिस प्रकार तुषोंके उड़ा देनेसे मनुष्योंका कोई सारभूत द्रव्य नष्ट नहीं होता उसी प्रकार तप और शीलसे युक्त कुशल पुरुष विषयरूपी विषको खलके समान दूर छोड़ देते हैं। भावार्थ -- तुषको उड़ा देनेवाला सूपा आदि तुषध्मत् कहलाता है, उसके बलसे मनुष्य सारभूत द्रव्यको बचाकर तुषको उड़ा देता है -- फेंक देता है उसी प्रकार तप और उत्तम शीलके धारक पुरुष ज्ञानोपयोगके द्वारा विषयभूत पदार्थोंके सारको ग्रहण कर विषयोंको खलके समान दूर छोड़ देते हैं। तप और शीलसे सहित ज्ञानी जीव इंद्रियोंके विषयको खलको समान समझते हैं। जिस प्रकार इक्षुका रस ग्रहण कर लेनेपर छिलका फेंक दिये जाते हैं उसी प्रकार विषयोंका सार जानना था सो ज्ञानी जीव इस सारको ग्रहण कर छिलकेके समान विषयोंका त्याग कर देता है। ज्ञानी मनुष्य विषयोंको ज्ञेयमात्र जान उन्हें जानता तो है परंतु उनमें आसक्त नहीं होता। अथवा एक भाव यह भी प्रकट होता है कि कुशल मनुष्य विषयको दुष्ट विषयके समान छोड़ देते हैं।।२४ ।। वट्टेसु य खंडेसु य, भद्देसु य विसालेसु अंगेसु। अंगेसु य पप्पेसु य, सव्वेसु य उत्तमं सीलं ।।२५।। इस मनुष्यके शरीरमें कोई एक अंग वृत्त अर्थात् गोल है, कोई खंड अर्थात् अर्धगोलाकार है, कोई भद्र अर्थात् सरल है और कोई विशाल अर्थात् चौड़ा है सो इन अंगोंके यथास्थान प्राप्त होनेपर भी सबमें उत्तम अंग शील ही है। भावार्थ -- शीलके बिना मनुष्यके समस्त अंगोंकी शोभा निःसार है इसलिए विवेकी जन शीलकी और ही लक्ष्य रखते हैं। ।२५।। पुरिसेण वि सहियाए, कुशमयमूढेहि विसयलोलेहिं। संसारे भमिदव्वं, अरयघरटें व भूदेहिं ।।२६।। मिथ्यामतमें मूढ़ हुए कितने ही विषयोंके लोभी मनुष्य ऐसा कहते हैं कि हमारा पुरुष -- ब्रह्म तो
SR No.009898
Book TitleAshta Pahud
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages85
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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