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________________ ३२८ कुंदकुंद-भारती इस प्रकार जिनेंद्र भगवान्के द्वारा प्रणीत इस मोक्षप्राभृतको जो उत्तम भक्तिसे पढ़ता है, सुनता है और इसकी भावना करता है वह शाश्वत सुख -- अविनाशी मोक्षसुखको प्राप्त होता है।।१०६ ।। इस प्रकार कुंदकुंदाचार्य विरचित मोक्षप्राभृत समाप्त हुआ। लिंगप्राभृतम् काऊण णमोकारं, अरहंताणं तहेव सिद्धाणं वोच्छामि समणलिंगं, पाहुडसत्थं समासेण।।१।। मैं अरहंतों तथा सिद्धोंको नमस्कार कर संक्षेपसे मुनिलिंगका वर्णन करनेवाले प्राभृत शास्त्रको कहूँगा।।१।। धम्मेण होइ लिंगं, ण लिंगमत्तेण धम्मसंपत्ती। जाणेहि भावधम्मं, किं ते लिंगेण कायव्वो।।२।। धर्मसे लिंग होता है, लिंगमात्र धारण करनेसे धर्मकी प्राप्ति नहीं होती। इसलिए भावको धर्म जानो, भावरहित लिंगसे तुझे क्या कार्य है? भावार्थ -- लिंग अर्थात् शरीरका वेष धर्मसे होता है। जिसने भावके बिना मात्र शरीरका वेष धारण किया है उसके धर्मकी प्राप्ति नहीं होती, इसलिए भाव ही धर्म है। भावके बिना मात्र वेष कार्यकारी नहीं है।।२।। जो पावमोहिदमदी, लिंगं घेत्तूण जिणवरिंदाणं। उवहसइ लिंगि भावं, लिंगंणासेदि लिंगीणं।।३।। जिसकी बुद्धि पापसे मोहित हो रही है ऐसा जो पुरुष जिनेंद्रदेवके लिंगको -- नग्न दिगंबर वेषको ग्रहण कर लिंगीके यथार्थ भावकी हँसी करता है वह सच्चे वेषधारियोंके वेषको नष्ट करता है अर्थात् लजाता है।।३।। णच्चदि गायदि तावं, वायं वाएदि लिंगरूवेण। सो पावमोहिदमदी, तिरिक्खजोणी ण सो समणो।।४।। जो मुणी लिंग धारण कर नाचता है, गाता है अथवा बाजा बजाता है वह पापसे मोहितबुद्धि पशु है,
SR No.009898
Book TitleAshta Pahud
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages85
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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