________________
३२५
अष्टपाहुड निश्चल सम्यग्दर्शनको ग्रहण कर दुःखोंका क्षय करनेके लिए ध्यानमें उसीका ध्यान किया जाता है।।८६ ।।
सम्मत्तं जो झायदि, सम्माइट्ठी हवेइ सो जीवो।
सम्मत्तपरिणदो उण, खवेइ दुट्ठट्ठकम्माणि।।८७।। जो जीव सम्यक्त्वका ध्यान करता है वह सम्यग्दृष्टि हो जाता है और सम्यक्त्वरूप परिणत हुआ जीव दुष्ट आठ कर्मोंका क्षय करता है।।८७ ।।
किं बहुणा भणिएणं, जे सिद्धा णरवरा गए काले।
सिज्झिहहि जे वि भविया, तं जाणह सम्ममाहप्पं ।।८८।। अधिक कहनेसे क्या? अतीत कालमें जितने श्रेष्ठ पुरुष सिद्ध हुए हैं और भविष्यत् कालमें जितने सिद्ध होंगे उस सबको तुम सम्यग्दर्शनका ही माहात्म्य जानो।।८८ ।।
ते धण्णा सुकयत्था, ते सूरा ते वि पंडिया मणुया।
सम्मत्तं सिद्धियरं, सिवणे वि य मइलियं जेहिं।।८९।। वे ही मनुष्य धन्य हैं, वे ही कृतकृत्य हैं, वे ही शूरवीर हैं और वे ही पंडित हैं जिन्होंने सिद्धिको प्राप्त करानेवाले सम्यक्त्वको स्वप्नमें भी मलिन नहीं किया।।८९ ।।
हिंसारहिए धम्मे, अट्ठारहदोसवज्जिए देवे।
णिग्गंथे पावयणे, सद्दहणं होइ सम्मत्तं ।।१०।। हिंसारहित धर्म, अठारह दोषरहित देव, निग्रंथ गुरु और अर्हत्प्रवचन -- समीचीन शास्त्रमें जो श्रद्धा है वह सम्यग्दर्शन है।।१०।।
जहजायरूवरूवं, सुसंजयं सव्वसंगपरिचत्तं।
लिंगंण परोवेक्खं, जो मण्णइ तस्स सम्मत्तं ।।९१।। दिगंबर मुनिका लिंग (वेष) यथाजात -- तत्काल उत्पन्न हुए बालकके समान होता है, उत्तम संयमसे सहित होता है, सब परिग्रहसे रहित होता है और परकी अपेक्षासे रहित होता है, ऐसा जो मानता है उसके सम्यक्त्व होता है।।९१।।
कुच्छियदेवं धम्मं, कुच्छियलिंगं च वंदए जो दु।
लज्जाभयगारवदो, मिच्छादिट्ठी हवे सो हु।।१२।। जो लज्जा, भय, गारवसे कुत्सित देव, कुत्सित धर्म और कुत्सित लिंगकी वंदना करता है वह मिथ्यादृष्टि होता है।।९२।।
सपरावेक्खं लिंगं, राई देवं असंजयं वंदे। माणइ मिच्छादिट्ठी, ण हु मण्णइ सुद्धसम्मत्तो।।१३।।