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________________ ३०७ अष्टपाहुड जह फणिराओ सोहइ, फणमणिमाणिक्ककिरणविप्फुरिओ। तह विमलदसणधरो, जिणभत्ती पवयणे जीवो।।१४५।। जिस प्रकार नागेंद्र फणाके मणियोंमें स्थित माणिक्यके किरणोंसे देदीप्यमान होता हुआ सुशोभित होता है उसी प्रकार निर्मल सम्यक्त्वका धारक जिनभक्त जीव जिनागममें सुशोभित होता है।।१४५।। जह तारागणसहियं, ससहरबिंब खमंडले विमले। भाविय तववयविमलं, जिणलिंग दंसणविसुद्धं ।१४६।। जिस प्रकार निर्मल आकाश मंडलमें ताराओंके समूहसे सहित चंद्रमाका बिंब शोभित होता है उसी प्रकार तप और व्रतसे विमल तथा सम्यग्दर्शनसे विशुद्ध जिनलिंग शोभित होता है।।१४६।। इय णाउं गुणदोसं, सणरयणं धरेह भावेण। सारं गुणरयणाणं, सोवाणं पढममोक्खस्स ।।१४७।। इस प्रकार गुण और दोषको जानकर हे भव्य जीवो! तुम उस सम्यग्दर्शनरूपी रत्नको शुद्ध भावसे धारण करो जो कि गुणरूपी रत्नोंमें श्रेष्ठ है तथा मोक्षकी पहली सीढी है।।१४७ ।। कत्ता भोइ अमुत्तो, सरीरमित्तो अणाइणिहणो य । दसणणाणुवओगो, णिहिट्ठो जिणवरिंदेहिं ।।१४८।। यह आत्मा कर्ता है, भोक्ता है, अमूर्तिक है, शरीरप्रमाण है, अनादि-निधन है और दर्शनोपयोग तथा ज्ञानोपयोगरूप है ऐसा जिनेंद्र भगवान्ने कहा है।।१४८ ।। दंसणणाणावरणं, मोहणियं अंतराइयं कम्म। णिट्ठवइ भवियजीवो, सम्मं जिणभावणाजुत्तो।।१४९।। भलीभाँति जिनभावनासे युक्त भव्य जीव दर्शनावरण, ज्ञानावरण, मोहनीय और अंतराय कर्मको नष्ट करता है।।१४९।। बलसोक्खणाणदंसण, चत्तारि वि पायडा गुणा होति। ___णटे घाइचउक्के, लोयालोयं पयासेदि।।१५०।। घातिचतुष्कके नष्ट होनेपर अनंत बल, अनंत सुख, अनंत ज्ञान और अनंत दर्शन ये चारों गुण प्रकट होते हैं तथा यह जीव लोकालोकको प्रकाशित करने लगता है।।१५० ।। णाणी सिव परमेट्ठी, सव्वण्हू विण्हू चउमुहो बुद्धो। अप्पो विय परमप्पो, कम्मविमुक्को य होइ फुडं।।१५१।। यह आत्मा कर्मसे विमुक्त होनेपर स्पष्ट ही परमात्मा हो जाता है और ज्ञानी, शिव, परमेष्ठी,
SR No.009898
Book TitleAshta Pahud
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages85
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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