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________________ अष्टपाहुड पयलियमाणकसाओ, पयलियमिच्छत्तमोहसमचित्तो। पावइ तिहुयणसारं, बोही जिणसासणे जीवो।।७८।। जिसका मानकषाय पूर्ण रूपसे नष्ट हो गया है तथा मिथ्यात्व और चारित्र मोहके नष्ट होनेसे जिसका चित्त इष्ट अनिष्ट विषयोंमें समरूप रहता है ऐसा जीव ही जिनशासनमें त्रिलोकश्रेष्ठ रत्नत्रयको प्राप्त करता है।।७८।। विसयविरत्तो सवणो, छद्दसवरकारणाइं भाऊण। तित्थयरणामकम्मं, बंधइ अइरेण कालेण।।७९।। विषयोंसे विरक्त रहनेवाला साधु सोलहकारण भावनाओंका चितवन कर थोड़े ही समयमें तीर्थंकर प्रकृतिका बंध करता है।।७९।। बारसविहतवयरणं, तेरसकिरियाउ भावतिविहेण। धरहि मणमत्तदुरियं, णाणांकुसएण मुणिपवर।।८।। हे मुनिश्रेष्ठ! तू बारह प्रकारका तपश्चरण और तेरह प्रकारकी क्रियाओंका मन वचन कायसे चिंतन कर तथा मनरूपी मत्त हाथीको ज्ञानरूपी अंकुशसे वश कर।।८० ।। पंचविहचेलचायं, खिदिसयणं दुविहसंजमं भिक्खू। भावं भावियपुव्वं, जिणलिंगं णिम्मलं सुद्धं ।।८१।। जहाँ पाँच प्रकारके वस्त्रोंका त्याग किया जाता है, जमीनपर सोया जाता है, दो प्रकारका संयम धारण किया जाता है, भिक्षासे भोजन किया जाता है और पहले आत्माके शुद्ध भावोंका विचार किया जाता है वह निर्मल जिनलिंग है।।८१।। जह रयणाणं पवरं, वज्जं जह तरुगणाण गोसीरं। तह धम्माणं पवरं, जिणधम्मं भाविभवमहणं ।।८।। जिस प्रकार रत्नोंमें हीरा और वृक्षोंके समूहमें चंदन सर्वश्रेष्ठ है उसी प्रकार समस्त धर्मों में संसारको नष्ट करनेवाला जिनधर्म सर्वश्रेष्ठ है ऐसा तू चितवन कर।।८२ ।। पूयादिसु वयसहियं, पुण्णं हि जिणेहिं सासणे भणियं। मोहक्खोहविहीणो, परिणामो अप्पणो धम्मो।।८३।। पूजा आदि शुभ क्रियाओंमें व्रतसहित जो प्रवृत्ति है तथा मोह और क्षोभसे रहित आत्माका जो भाव है वह धर्म है ऐसा जिनशासनमें जिनेंद्र भगवान्ने कहा है।।८३ ।। सदहदि य पत्तेदि य, रोचेदि य तह पुणो वि फासेदि। पुण्णं भोयणिमित्तं, ण हु सो कम्मक्खयणिमित्तं ।।८४।।
SR No.009898
Book TitleAshta Pahud
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages85
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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