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कुंदकुंद - भारती सम्मत्तणाणदंसणबलवीरियवड्ढमाण जे सव्वे ।
कलिकलुसपावरहिया, वरणाणी होंति अइरेण । ॥६॥
जो पुरुष सम्यक्त्व, ज्ञान, दर्शन, बल और वीर्यसे वृद्धिको प्राप्त हैं तथा कलिकाल संबंधी मलिन पापसे रहित हैं वे सब शीघ्र ही उत्कृष्ट ज्ञानी हो जाते हैं ।। ६ ।।
सम्मत्तसलिलपवहे, णिच्चं हियए पवट्टए जस्स ।
कम्मं वालुयवरणं, बंधुच्चिय णासए तस्स ।।७।।
जिस मनुष्य हृदयमें सम्यक्त्वरूपी जलका प्रवाह निरंतर प्रवाहित होता है उसका पूर्वबंध से संचित कर्मरूपी बालूका आवरण नष्ट हो जाता है ।।७।।
जे दंसणेसु भट्टा, णाणे भट्टा चरित्तभट्टा य ।
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ऐ भट्टविभट्टा, सेसं पि जणं विणासंति । । ८ । ।
जो मनुष्य दर्शनसे भ्रष्ट हैं, ज्ञानसे भ्रष्ट हैं और चारित्रसे भ्रष्ट हैं वे भ्रष्टोंमें भ्रष्ट हैं -- अत्यंत भ्रष्ट हैं तथा अन्य जनोंको भी भ्रष्ट करते हैं । १८ ।।
जोकोवि धम्मसीलो, संजमतवणियमजोयगुणधारी ।
तस् य दोस कहंता, भग्गा भग्गत्तणं दिति । ।९ ।।
कोई धर्मात्मा संयम, तप, नियम और योग आदि गुणोंका धारक है उसके दोषोंको कहते हुए क्षुद्र मनुष्य स्वयं भ्रष्ट हैं तथा दूसरोंको भी भ्रष्टता प्रदान करते हैं ।। ९ ।।
जह मूलम्मि विणट्टे, दुमस्स परिवार णत्थि परवड्डी ।
तह जिणदंसणभट्टा, मूलविणट्टा ण सिज्झति ।। १० ।।
जैसे जड़ नष्ट हो जानेपर वृक्षके परिवारकी वृद्धि नहीं होती वैसे ही जो पुरुष जिनदर्शनसे भ्रष्ट हैं वे मूलसे विनष्ट हैं -- उनका मूल धर्म नष्ट हो चुका है, अतः ऐसे जीव सिद्ध अवस्थाको प्राप्त नहीं हो
पाते हैं ।। १० ।।
जह मूलाओ खंधो, साहापरिवार बहुगुणो होई ।
तह जिणदंसणमूलो, णिद्दिट्ठो मोक्खमग्गस्स ।। ११ ।।
जिस प्रकार वृक्षकी जड़से शाखा आदि परिवारसे युक्त कई गुणा स्कंध उत्पन्न होता है उसी प्रकार मोक्षमार्गकी जड़ जिनदर्शन - जिनधर्मका श्रद्धान है ऐसा कहा गया है ।। ११ ।।
जे दंसणेसु भट्टा, पाए पाडंति दंसणधराणं ।
ते होंति लुल्लमूआ, बोही पुण दुल्लहा तेसिं । ।१२ । ।