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षष्ठ परिच्छेद ।।
(२३३) है तथा नमस्कार शब्द प्रणाम का वाचक है, अतः ईशस्वरूप परमेष्ठियों को नमस्कार करने से ईशिश्व सिद्धि की प्राप्ति होती है, क्योंकि उत्तम ईशों का यह स्वभाव ही होता है कि वे अपने प्राश्रितों तथा पाराधकों को वैभव विषय में अपने ही तुल्य करदेते (९) हैं।
(ख)-"पञ्चणमोकारो” यह जो, प्राकृत का पद है इस का पर्याय सं. स्कृत में “माञ्चनमस्कारः। (२) जानना चाहिये, इस का अर्थ यह है कि-"प्रक र्षेण अच्यन्ते पूज्यन्ते सुरासुरैरष्टमातिहार्यते प्राञ्चाजिनास्तेषां नमस्कारः माञ्चनमस्कारः” अर्थात् पाठ प्रातिहार्यों के द्वारा जिन की पूजा सुर और प्रमुर प्रकर्षभाव के द्वारा करते हैं उन का नाम "प्राच” अर्थात् जिन है, उन को जो नमस्कार करता है उस का नाम प्राञ्च नमस्कार है, तात्पर्य यह है कि-"प्राञ्चनमस्कार” शब्द "जिन नमस्कारण का वाचक है" पूर्वोक्त गुण वि. शिष्ट जिन भगवान् सर्व चराचर जगत् के ईश अर्थात् नाथ (स्वामी ) हैं, (३) अतः उन के ईशत्त्व भाव के कारण "पञ्चरणमोक्कारो” इस पद से ईशिव सिद्धि की प्राप्ति होती है।
(ग)-"पञ्चणमोकारो” इस प्राकृत पद का पर्याय पूर्व लिखे अनुसार "प्राञ्च नमस्कारः” जानना चाहिये, तथा प्राञ्च शब्द से सिद्धों को जानना चाहिये (४) सिद्ध पुरुष अपुनरावृत्ति के द्वारा गमन कर मोक्ष नगरी के ईश
१-श्रीमान् मानतुङ्गाचार्य स्वनिर्मित श्रीभक्तामर स्तोत्र में लिखते हैं कि-'नात्यद्भुतं भुवनभूषणभूतनाथ । भूतैर्गुणैर्भुविभवन्तमभिष्टुवन्तः। तुल्या भवन्ति भवतो नमु तेन किं वा । भूत्याश्रितं य इह नात्मसमं करोति ॥ १॥ सत्य ही है कि-वे स्वामी ही क्या हैं जो कि अपनी विभूतिसे अपने आश्रित जनों को अपने समान नहीं बनाते है ॥२-रेफ का लोप होने पर "स्वराणां स्वराः” इस सूत्र से आकार के स्थान में अकारादेश जानना चाहिये ॥३-श्रीनन्दीसूत्र कर्ता श्रीदेव वाचक सूरिने आदि गाथा में (जयइ जगजीव जोणि वियाणओ० इत्यादि गाथा में ) भगवान् का विशेषण "जगणाहो” (जगन्नाथः) लिखा है, उस की व्याख्या करते समय श्रीमलयगिरिजी महाराज ने लिखा है कि-"जगन्नाथ” इस पद में जगत् शब्द से सकल चराचर का ग्रहण होता है तथा नाथ शब्द योगक्षेमकारी का वाचक है, (क्योंकि विद्वानों ने योग क्षेमकारी को ही नाथ कहा है ) इस लिये यथावस्थित स्वरूप की प्ररूपणा के द्वारा तथा मिथ्या प्ररूपणा जन्य अपायों से रक्षा करने के कारण भगवान् सकल चराचर रूप जगत् के नाथ (ईश ) हैं” ॥४-"प्राञ्चन्ति सिद्धिधाम इति प्राश्चाः सिद्धाः "॥
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