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षष्ठ परिच्छेद । इसके स्वरूप के विषय में कहा गया है कि:णकारं परमेशानि, या स्वयं परकुण्डली ॥ पतिविद्युल्लताकारं, पञ्चदेवमयं सदा ॥१॥ पञ्च माणमयं देवि,सदा त्रिगुण संयुतम् ॥ आत्मादि तत्त्वसंयुक्त, महामोहप्रदायकम् ॥ २ ॥
(इति कामधेनुतन्त्र) अर्थ-हे परमेश्वरी ! जो स्वयं पर कुण्डली है उसको णकार जानो, उस का स्वरूप पीत वर्ण (१) की विद्युत (२) के समान है तथा उसका स्वरूप सर्वदा पञ्चदेवमय (३) है ॥ १॥
हे देवि ! उसका स्वरूप पञ्च प्राणमय (४) हैं, सदा तीन गुणों से. यक्त रहता है, उसमें प्रात्मा आदि तत्त्व संयुक्त रहते हैं तथा वह महामोहका प्रदायक (५) है ॥२॥
उक्त णकार के चौबीस नाम कहे गये हैं:णो निर्गुणं रतिर्ज्ञानं, जम्भनः पक्षिवाहनः ॥ जयाशम्भो नरकजिक, निष्फला योगिनीप्रियः ॥ १॥ द्विमुखं कोटवी श्रोत्रं, समृद्धि र्बोधनी मना ॥ त्रिनेत्री मानुषी व्योम, दक्षपादांगुलेर्मुखः ॥ २ ॥ माधवः शनीवीरो, नारायणश्च निर्णयः ॥३॥
(इति नानातन्त्र शास्त्रम् ) ॥ अर्थ-निर्गुण, रति, ज्ञान, जम्भन, पक्षिवाहन, जया, शन, नरकजित्, 'निष्फला, योगिनीप्रिय, द्विमुख, कोटवी, श्रोत्र, समद्धि, बी धनी त्रिनेत्र, मा. नुषी, व्योम, दक्षके चरण की अंगुलि का मुख, माधव, शंखिनी, वीर, नारायण और निर्णय ॥१॥२॥ ॥३॥ - अब विचार करने का विषय यह है कि-णकार की प्राकृति (६) को ब्रह्मा, ईश और विष्णु रूप कहा है, चतुर्वर्गफलप्रदा (७) कहा है, गाकर
१-पीले रंग ॥२-बिजली ॥३-पञ्चदेव स्वरूप ॥ ४-पांच प्रणस्वरूप ॥५-देन वाला ॥६-सरूप ॥७-चतुर्वर्ग ( धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष ) रूप फल को देनेवाली।
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