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पञ्चम परिच्छेद ॥
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साहू मंगलं, केवलि पराणत्तो धम्मो मंगलं ॥१॥ अर्थात् अरिहन्त मङ्गल रूप हैं, सिद्ध मङ्गल रूप हैं, साधु मङ्गल रूप हैं तथा केवली का प्रप्स (१) धर्म मङ्गल रूप है ॥ १ ॥
( प्रश्न ) परमेष्ठि नमस्कार महास्तोत्र के कर्त्ता श्रीजिन कीर्ति सूरिने स्वोपज्ञवृत्ति के प्रारम्भ में इस महा मन्त्र को अड़सठ अक्षरों से विशिष्ट कहा है; सो इसके अड़सठ अक्षर किस प्रकार जानने चाहिये तथा अड़सठ अक्षरों से युक्त इस महामन्त्र के होने का क्या कारण है ?
(उत्तर) इस नवकार मन्त्र में नौ पद हैं; उनमें से प्रादिके जो पांच पद हैं वे ही मूलमन्त्र स्वरूप हैं; उनमें व्यञ्जनोंके सहित लघु (२) श्रौर गुरु (३) वर्णों की गणना करने से पैंतीस अक्षर होते हैं तथा पिल्ले जो चारपद हैं वे चूलिका के हैं, उनमें मूल मन्त्र के प्रभाव का वर्णन किया गया है, उक्त चारों पदों में व्यञ्जनों के सहित लघु और गुरु अक्षरों की गणना करने से तेंतीस अक्षर होते हैं, उक्त दोनों संख्याओं को जोड़ने से कुल अड़मठ अक्षर होते हैं; प्रतः इस महामन्त्र को अड़सठ अक्षरों से विशिष्ट कहा है ।
इस महामन्त्र में अड़सठ अक्षरों के सन्निवेश (४) का प्रयोजन (५) यह है कि, इस में पांच परमेष्ठियों को नमस्कार किया गया है तथा इस में नौ पद हैं; जिनकी भङ्गोंकी क्रिया ( प्रक्रिया ) पृथक २ है, इसीलिये इस महा मंन्त्र को नवकार मन्त्र (६) कहते हैं, पांच को नौ से गुणा करने पर पैंतालोस होते हैं; उनको ड्योढ़ा करने पर साढ़े सड़मठ होते हैं; उनमें आधा जोड़ने से घड़सठ होते हैं, अत्र इसका तात्पर्य यह है कि जो नवपदों की प्रक्रिया से पांच परमेष्ठियों का ध्यान करता है । अर्थात् इस प्रकार से पैंतालीस संख्या को प्राप्त होता है । उसका हिसाब किताब (लेखा) संसार से ड्योढ़ा ( निःशेष ) हो जाता है । अर्थात् इस प्रकार से वह साढ़े सड़सठ संख्या की प्राप्त होता है; । संसारसे लेखाके ड्योढ़ा होने के पश्चात् ( अर्थात् साढ़े सड़सठ संख्या को प्राप्त होने के पश्चात् ) उस के लिये संसार केवल अर्धक्षण मात्र ही रहता है, उस अर्धक्षण के बीतने पर ( अर्थात् श्राधे के मिलने पर ) वह अड़सठ हो जाता है अर्थात् सिद्धि धान (9) को प्राप्त हो जाता है ।
१-कहा हुआ ॥ २-हुस्व ॥ ३- दीर्घ ॥ ४- संस्थापन ॥ अर्थात् नौ हैं "कार" अर्थात् क्रियायें जिस में; ऐसा मन्त्र ॥
Aho! Shrutgyanam
५- नात्पर्य ॥ ६-"नव" ७- सिद्धिस्थान ॥