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पञ्चम परिच्छेद। अर्थात् पांचों में से सिद्ध मुख्य हैं; अतः सिद्धों को प्रथम नमस्कार करके पीछे पानपूर्वी (१) के द्वारा अरिहन्त आदि को नमस्कार करना युक्त है।
(उत्तर ) हम सिद्धों को भी अरिहन्त के उपदेश से ही जानते हैं, फिर देखो ! अरिहन्त तीर्थ की प्रवृत्ति करते हैं और उपदेश के द्वारा बहुत से जीवों का उपकार करते हैं; यही नहीं; किन्तु सिद्ध भी अरिहन्त के उपदेश से ही चरित्र का आदर कर कर्म रहित होकर सिद्धि को प्राप्त होते हैं। इस लिये सिद्धों से पूर्व अरिहन्तों को नमस्कार किया गया है।
(प्रश्न ) यदि इस प्रकार उपकारित्त्व का (२) विचार कर नमस्कार करना अभीष्ट है तो प्राचार्य श्रादिको भी प्रथम नमस्कार करना उचित होगा क्योंकि किसी समय प्राचार्य आदि से भी अरिहन्त प्रादि का ज्ञान होता है; अतः प्राचार्य प्रादि भी महोपकारी (३) होने से प्रथम नमस्कार करने योग्य हैं।
(उत्तर)- प्राचार्य को उपदेश देने का सामर्थ्य अरिहन्तके उपदेश से ही प्राप्त होता है, अर्थात् प्राचार्य आदि (४) स्वतन्त्रता से उपदेश ग्रहण कर अर्थज्ञापन (५) के सामर्थ्य को प्राप्त नहीं कर सकते हैं, तात्पर्य यह है कि अरिहन्त ही परमार्थतया (६) सब पदार्थों के ज्ञापक (७) हैं; अतः उन्हीं को प्रथम नमस्कार करना योग्य है । किञ्च-प्राचार्य आदि तो अरिहन्त के पर्षदारूप (८) हैं; अतः आचार्य श्रादिको प्रथम नमस्कार करने के पश्चात् अरिहन्त को नमस्कार करना योग्य नहीं है, देखो लोक में भी पर्षदा (e) को प्रणाम करने के पश्चात् राजा को प्रणाम कोई नहीं करता है उसी के समान यहां पर भी पर्षदारूप प्राचार्य प्रादि को नमस्कार कर राजा रूप अरिहन्त को पीछे नमस्कार करना योग्य नहीं है, तात्पर्य यह है कि राजारूप अरि. हन्त को ही प्रथम नमस्कार कर पर्षदारूप आचार्य आदि को पीछे नमस्कार करना युक्तिसङ्गत (१०) है (११)।
१-अनुक्रम से गणना ॥२-उपकारकारी होने का ॥३-अत्यन्त उपकार करते वाले ॥४-आदि शब्द से उपाध्याय को जानना चाहिये ॥ ५-पदार्थों को प्रकार ना ॥६-मख्य रातिसे ॥ ७-ज्ञान कराने वाल ॥ ८-सभारूप ॥६-सभा. मी १०-युक्ति सहित, युक्तिसिद्ध॥ ११-अन्यत्र कहा भी है कि- “पुव्वाणुपुब्धि न कमो नेव य पच्छाणपुठिव एस भवे ॥ सिद्धाई आ पढमा, वोआए. साहुणो आई रहन्ता उपएसेणं, सिद्धाण जन्ति तेण अरिहाई ॥ णविकोवि परिसाए पणमई रनोत्ति ॥ २॥ ऊपर जो विषय लिखा गया है वही इन दोनों गाथाओं भावार्थ है।
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