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________________ ( १६२ ) श्रीमन्त्रराजगुणकल्पमहोदधि ॥ तथा चारित्र्यशैविल्यकारिणी (९) विजया (२) का वर्जन (३) करते हैं, मल और माया (४) से दूर रहते हैं तथा देशकालोचित (५) विभिन्न (६) उपायों से शिष्य नादि को प्रवचन का अभ्यास कराते हैं, साधु जनों को क्रिया का धारण कराते हैं, जैसे सूर्य के प्रस्त हो जाने पर घर में स्थित घट (9) पट (८) आदि पदार्थ नहीं दीखते हैं तथा प्रदीप के प्रकाश से वे दीखने लगते हैं, उसी प्रकार केवल ज्ञानी (९) भास्करसमान (१०) श्री तीर्थङ्कर देव के मुक्ति सौध (११) में जाने के पश्चात् तीनों लोकों के पदार्थों के प्रकाशक (१२) दीपक के समान प्राचार्य ही होते हैं, अतः उनको प्रवश्य नमस्कार करना चाहिये, जो भव्य जीव ऐसे प्राचार्यों को निरन्तर नमस्कार करते हैं वे जीव धन्य माने जाते हैं तथा उनका भवक्षय (१३) शीघ्र ही हो जाता है । ( प्रश्न ) - आचार्यों का ध्यान किस के समान तथा किस रूप में करना चाहिये ? (उत्तर) आचायों का ध्यान सुवर्ण के समान पती रूप में करना चाहिये । ( प्रश्न ) - " णमो उवज्झायाणं" इस चौथे पद से उपाध्यायों को नमस्कार किया गया है, उन ( उपाध्यायों ) का क्या स्वरूप है और उपाध्याय किन को कहते हैं ? ( उत्तर ) - जिन के समीप में रह कर अथवा प्राकर शिष्य जन अध्ययन करते हैं उनको उपाध्याय कहते हैं (९४) । अथवा जो समीप में रहे हुए अथवा प्राये हुए साधु आदि जनों को सिद्धान्त का अध्ययन कराते हैं वे उपाध्याय कहे जाते हैं (१५) १ - चारित्र में शिथिलता को उत्पन्न करने वाली ॥ २-विरुद्ध कथा, अनुचित वार्त्तालाप ॥ ३-त्याग ॥ ४- दम्भ, कपट, पाखण्ड, ५- देश और काल के अनुसार ॥ ६- अनेक प्रकार के ॥ ७ - घड़ा ॥ ८-वस्त्र ॥ ६- केवल ज्ञान वाले ॥ १० -सूर्य के समान ॥ ११- मुक्तिरूप महल ॥ १२- प्रकाशित करने वाले ॥ १३-संसार का नाश ॥ १४- " उप समीपे उषित्वा एत्य वा ( शिष्यजनाः ) अधीयते यस्मात् स उपाध्यायः” यह उपाध्याय शब्द की व्युत्पत्ति है ॥ १५- "उप समीपे उषितान् आगतान् वा साधुजनान्ये सिद्धान्तमध्यापयन्तीति उपाध्यायाः” इति व्युत्पत्तेः ॥ Aho! Shrutgyanam
SR No.009886
Book TitleMantraraj Guna Kalpa Mahodadhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinkirtisuri, Jaydayal Sharma
PublisherJaydayal Sharma
Publication Year1920
Total Pages294
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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