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श्रीमन्त्रराजगुणकल्पमहोदधि ॥ . वाणी रूपी चन्द्रिका (१) से वह भव्य जीव रूपी कुमुदों को विकसित (२) कर देता है तथा द्रव्य और भावमें स्थित मिथ्यात्व को क्षण भरमें निमूल (३) कर देता है ॥ २५ ॥ . उसका केवल नाम लेनेसे भव्य जीवों का अनादि संसार से उत्पन्न स. कल दुःख शीघ्र ही नाश को प्राप्त हो जाता है ॥ २६ ॥ __उपासना के लिये आये हुए सैकड़ों करोड़ सुर और नर श्रादि केवल योजनमात्र (४) क्षेत्र में उसके प्रभाव से समा जाते हैं ॥ २७ ॥
देव, मनुष्य, तिर्यञ्च तथा अन्य भी प्राणी प्रभुके धर्मावबोधक (५) वचन को अपनी २ भाषामें समझ लेते हैं ॥ २८ ॥
उसके प्रभाव से सौ योजनों तक उग्र (६) रोग शान्त हो जाते हैं; जैसे कि चन्द्रमा का उदय होने पर पृथिवी का ताप (७) सब तरफ नष्ट हो जाता है ॥२९॥
इसके विहार करते समय-मारी, (८) ईति, (९) दुर्भिक्ष, अतिवृष्टि अनावृष्टि (१०) भय और वैर, ये सब इस प्रकार नहीं रहते हैं जैसे कि सूर्य का उदय होनेपर अन्धकार नहीं रहता है ॥ ३० ॥ __ मार्तण्डमण्डल (१९) की कान्ति (१२) का तिरस्कार करनेवाला तथा चारों ओर से दिशाओं को प्रकाशित करनेवाला प्रभ के आस पास का भामण्डल [१३] शरीर के समीप में प्रकट हो जाता है ॥३१॥
उस भगवान्के विहार करते समय उत्तम भक्तिवाले देव पादन्यास (१४) के अनुकूल प्रफुल्ल [१५] कमलों को बनाते हैं ॥ ३२ ॥
वायु अनुकूल चलता है, सब शकुन इसके दक्षिण में गमन करते हैं, वृक्ष झुक जाते हैं तथा कौटे भी अधोमुख [१६] हो जाते हैं ॥ ३३ ॥
कुछ रक्त [१७] पल्लव [१८] वाला, प्रफुल्ल पुष्पों के गम्धसे युक्त तथा भ्र.
१-चांदनी, चन्द्र प्रकाश ॥ २-खिला हुआ ॥ ३-मूल रहित, नष्ट ।। ४-केवल - चार कोस भर॥ ५-धर्मको बतलाने वाले ॥ ६-कठिन ॥ ७-उष्णता गर्मी ॥ -महामारी॥६-सात प्रकारके विप्लव ॥ १०-वृष्टिका अभाव ॥ ११-सूर्यमण्डल ॥ १२-प्रकाश, शोभा ॥ १३-दीप्तिसमूह ॥ १४-पैर का रखना ॥ १५-फूले हुए। १६-नीचे को मुख किये हुए ॥ ७-लाल ॥ १८-पत्र ।।
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