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तृतीय परि छेद ॥
जब (१) चलता हुो भी पवन अच्छे प्रकार से न मालम हो तब पीत (२) श्वेत, (३) अरुण (४) और श्याम (५) विन्दुओं से उस का निश्चय करना चाहिये ॥ २३६ ॥
दोनों अंगूठों से दोनों कानों को, दोनों मध्यमा (६) अंगुलियों से ना. सिका के दोनों छिद्रों को तथा कनिष्ठिका (७) और अनामिका (८) अंगु. लियोंसे मुख कमल को बन्द कर तथा दोनों तर्जनी (C) अंगुलियों से नेत्रों के कोणों को दवा कर तथा श्वास को रोक कर सावधान मन होकर विन्द के रंग को देखो ॥ २३७ । २३८ ॥
पीत विन्द से भौम (१०) को, श्वेतविन्दु से वरुण (१९) को, कृष्णविन्द से पवन (१२) को तथा लालविन्दु से हुताशन (१३) को जाने ॥ २३ ॥ ..
चलती हुई जिस वाम अथवा दक्षिण नाड़ी को रोकना चाहे उस अङ्क को शीघ्र ही दाब देना चाहिये कि जिस से नाड़ी दूसरी हो जावे ॥ २५० ॥
विचार शील जन वाम विभाग (१४) में अग्रभाग में चन्द्र क्षेत्रको कहते हैं तथा दक्षिणभाग (१५) में पृष्ठ भाग में सूर्य क्षेत्र को कहते हैं ॥ २४१ ॥
लाभ, अलाभ, सुख, दुःख, जीवन और मरण को वायु सञ्चार (१६) के जानने वाले विरले ही पुरुष अच्छे प्रकार से जानते हैं ॥ २४२ ॥
जो बुद्धिमान् पुरुष नाड़ीकी विशुद्धि को अच्छे प्रकार से जानता है उस को वायु से उत्पन्न होने वाला सब ही सामर्थ्य ज्ञात हो जाता है ॥ २४३ ॥
नाभिरूप अष्ट कर्णिका पर चढ़े हुए, कलाविन्दु से पवित्र हुए, रेफ से युक्त तथा स्फटित कान्ति वाले (१७) हकारका चिन्तन करना चाहिये, तद. नन्तर विजली के वेग से तथा अग्निकणों की सैकड़ों शिखाओं के साथ सर्य भार्ग से उस का रेचन करे तथा उसे आकाशतल में पहुंचा दे, तत्पश्चात् अमृतसे प्राई कर (१८) धीरे २ उतार कर चन्द्र के समान कान्ति वाले उस हकार
१-अब यहांसे २३६वें श्लोकसे लेकर श्लोकोंका अर्थ लिखा जाता है । २-पीला। ३-सफेद ॥ ४-लाल ॥५-काला ॥ ६-बीच की॥ ७-सब से छोटी ॥ ८-छोटी अंगुलि के पास की अंगुलि ॥ १-अंगूठे के पास की अंगुलि १०-भौम नामक वायु को ॥ ११-वरुण नामक वायु को ॥ १२-पवन नामक वायु को ॥ १३-अग्नि ना. मक वायु को॥ १४-बांई ओर ॥१५-दाहिनी ओर ॥ १६-वायु की गति किया। प्रदीप्त आभा वाले ॥ १८-भिगो कर ॥
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