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श्रीमन्त्रराजगुणकल्पमहोदधि ॥
करते हुए शुभकारी होते हैं तथा निकलते हुए विपरीत (१) होते हैं ॥ ५७ ॥
प्रवेश के समय में जीव वायु होता है तथा निकलते समय मृत्यु वायु होता है, इसलिये ज्ञानी लोग इन दोनों का ऐसा फल कहते हैं ॥ ५८ ॥
चन्द्र के मार्ग में प्रवेश करने वाले इन्द्र और वरुण वायु सर्व सिद्धियों को देते हैं तथा सूयमार्गसे निकलने और प्रवेश करने वाले (ये दोनों वायु) मध्यम होते हैं ॥ ५७ ॥
पवन और दहन वाय दक्षिण मार्ग से निकलते हुए विनाश के लिये होते हैं तथा इतर (२) मार्ग से निकलते और प्रवेश करते हुए ( ये दोनों वायु ) मध्यम होते हैं ॥ ६० ॥
इडा,
(३) पिङ्गला (४) और सुषुम्णा, (५) ये तीन नाड़ियां हैं, इन का क्रम से चन्द्र, सूर्य और शिवस्थान है तथा ये वाम, दक्षिण और मध्य में रहती हैं ॥ ६१ ॥
(६) में मानों अमृत को वर
इन में से वाम नाड़ी सर्वदा सब गात्रों नाती रहती है, अमृत से भरी रहती है, तथा अभीष्ट सूचक (9) मानी गई है । दक्षिण नाड़ी चलती हुई अनिष्ट (८) का सूचन (९) करती है तथा संहार (१०) करने वाली है तथा सुषुम्णा नाड़ी सिद्धियों तथा मोक्ष फल का कारण है ॥ ६२ ॥ ६३ ॥
अभ्युदय (११) आदि अभीष्ट (१२) और प्रशंसनीय (१३) कार्यों में वाम नाड़ी मानी गई है, सम्भोग आहार और युद्ध आदि दीप्त कार्यों में दक्षिण नाड़ी अच्छी मानी गई है ॥ ६४ ॥
सूर्योदय के समय शुक्ल पक्ष में वाम नाड़ी अच्छी मानी गई है तथा कृष्णपक्ष में दक्षिण नाड़ी अच्छी मानी गई है तथा उक्त पक्षों में तीन तीन दिनों तक सूर्य और चन्द्र का उदय शुभ होता है ॥ ६५ ॥
वायु का चन्द्र से उदय होने पर सूर्य से ग्रस्त होना शुभकारी (१४) तथा
१ - उलटे अर्थात् अशुभकारी ॥ २- दूसरे अर्थात् वायें ॥ ३ - बांई ओर की ॥ ४- दाहिनी ओर की ।। ५- मध्यभाग की ॥ ६ शरीर के अवयवों ॥ ७- मनोवाञ्छित पदार्थको सूचित करने वाली ॥ ८-अप्रिय ॥ ६-सूचनां ॥ १०नाश ॥ ११- वृद्धि ॥ १२- प्रिय ॥ १३ - प्रशंसा के योग्य, उत्तम ॥ १४- कल्याणकारी ॥
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