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श्री मन्त्रराज गुण कल्पमहोदधि ॥
नाभि से सच्चरण (१) को निकालते हुए, हृदय में गति को ले जाते हुए तथा द्वादश (२) के अन्त में ठहरते हुए पवन के स्थान को जाने ॥३७॥ उसके सञ्चरण, गमन तथा स्थान का ज्ञान होनेसे अभ्यास के योगसे और अशुभ फलोदय से युक्त काल तथा आयु को जाने ॥ ३८ ॥ पीछे योगी पुरुष पवन के साथ मन को धीरे २ कमल के भीतर ठहरा कर नियन्त्रित (३) कर दे ||३९||
शुभ
खींच कर उसे हृदय
(१००)
ऐसा करने से श्रविद्यायें नष्ट हो जाती हैं, विषय की इच्छा का नाश होता है, विकल्पों (४) को निवृत्ति होती है तथा भीतर ज्ञान प्रकट होता है ॥४०॥
वहां चित्त के स्थिर कर लेनेपर वायु की किस मण्डल में गति है, कहां संक्रम (५) है, कहां विश्राम है तथा कौनसी नाड़ी है, इन सब बातों को जान सकता है ॥ ४१ ॥
नासिका के विवर (६) में भौम, वारुण, वायव्य तथा श्राग्नेय नामक क्रम से चार मण्डल माने गये हैं ॥४२॥
उनमें से भौम मण्डल पृथिवी के बीज से सम्पूर्ण, वज्र के चिन्ह से युक्त, चौकोन तथा त (9) सुवर्ण के समान श्राकृतिवाला, वारुण अक्षर से लांछित (१०) चन्द्र के समान कान्तिवाला तथा अमृत के झरने के समान सान्द्र ( १९ ) है ॥ ४४ ॥ arror मण्डल स्निग्ध [१२] अञ्जन तथा बादलोंके समान कान्तिवाला अत्यन्त गोल विन्दु से युक्त, दुर्लक्ष्य, [१३] पवन से आक्रान्त [१४] तथा चल है ॥४५॥
लाग्नेय मण्डल को ऊर्ध्व ज्वाला से युक्त, भयङ्कर, त्रिकोण, स्वस्तिक [१५] से युक्त, स्फुलिङ्ग [१६] के समान पिङ्ग [१७] तथा तद्वीजरूप जानना चाहिये ॥४६॥
१- गति क्रिया ॥ २- ब्रह्मरन्धू ॥ ३- स्थापित बद्ध ४- सन्देहों ॥ ५-गति क्रिया ॥ ६- छिद्र ॥ ७-नपा हुआ ८-आधा चन्द्रमा ॥-त्रकार १० - चिन्ह युक्त ॥ ११- आई. क्लिन्न ॥ १२-चिकना || १३ - कठिनता से जानने योग्य ॥ १४ - दवाया हुआ ॥ १५-साथिया ॥ १६- अग्निकण ॥ ५७-पोला ॥
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