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: द्वितीय परिच्छेद ॥
(११) "अर" रूप जो "भ” है उसको 'परम” कहते हैं, उसको "नम” अर्थात् सेवा करो, ( क यह सम्बोधन पद है ) वह "भ” कैसा है कि "तान” है, शुभ कार्यों को जो "तानयति” अर्थात् विस्तृत करता है, उसको "तान" कहते हैं, क्योंकि शीघ्रगामी शुक्र अस्तङ्गत (१) न होकर शुभ होता )है, श्र.
र्थात् शुभ कार्य के लिये होता है । - १०७-अब शनि का वर्णन किया जाता है विश्वप्रकाश में प्रार" शब्द क्षितिपुत्र (२) तथा अर्कज (३) का वाचक कहा गया है, अतः" भार" शब्द शनिवाचक है, ( स्वराणां स्वराः” इस सूत्र से प्राकृत में “अर" ऐसा शब्द हो जाता है ) अथवा “अर” कैसा है कि “भान" है, जिसमें प्राकार का “न” अर्थात् वन्ध (४) है, ( इस व्युत्पत्ति के द्वारा “भार" ऐसा शब्द हो गया ) "प्रार" अर्थात् शनिको नमस्कार हो, यह उपहास नमस्कार (२) है, तात्पर्य यह है कि जिस लिये "हन्ता अर्थात् जनों को पीडा दायक (६) है, इसलिये हे "प्रार” तुझ को नमस्कार हो ।
१०-अब राहु का वर्णन किया जाता है-“उ पर ह” उदर (७) में हीन होता है, "उदरह” नाम गहु का है, शिरोमात्र रूप होनेसे राहु उदर हीन (८) है, वह कैसा है कि-"नम” है, ( न शौच (क) धातु प्रदर्शन (९०) अर्थ में है, "नश्यति” इस व्यत्पत्ति के करने पर ड प्रत्यय मानेपर न शब्द बन जाता है ) इस प्रकार का “म” अर्थात् चन्द्रमा जिसके कारण होता है। अतः उसे "नम" कहते हैं, उपलक्षण (११) से सूर्य का भी ग्रहण होता है, राहु चन्द्र और सूर्य को ग्रसता है। अतः राहु से चन्द्र का नाश होता है, फिर वह कैसा है कि "तान” है, “त” नाम युद्ध का है, उसका वन्ध अर्थात् रचना जिससे होती है। अतः उसे "तान” कहते हैं, राहु की साधना के साथ युद्ध किया जाता है, इसलिये यह विशेषण युक्ति युक्त (१२) है ॥
१०९-अब केतुका वर्णन किया जाता है-“उदरह” नाम राहु का है, १-अस्त को प्राप्त हुआ ॥ २-पृथिवी का पुत्र (शनि) ॥ ३-अर्क (सूर्य) से उत्पन्न (शनि)॥ ४-जोड़, योग, संयोग ॥ ५-हंसो के साथ नमस्कार ॥ ६-पीडा (दुःख) का देनेवाला ॥ ७-पेट ॥ ८-पेट से रहित ॥ -अन्यत्र "णश" धातु कहा गया है ॥ १०-न दीखना ॥ ११-सूचनामात्र ॥ १२-युक्ति से सिद्ध ॥
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