SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 14
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन साहित्यसंशोधक 'पुरिसा ! सच्चमेव समभिजाणाहि । सन्चस्साणाए. उवदिए मेहावी मारं तरह ।' 'जे एगं जाणड़ से सब्बं जाणइ; जे सञ्चं जाणइ से एग जाणइ ।' ___ 'दिटुं, मयं, मय, विण्णायं, जं एत्थ परिकहिजइ ।' -निर्ग्रन्थप्रवचन खंड ३] महावीरनिर्वाण संवत् २४५३-आश्विन [अंक ३ ॥१ ॥ महाकवि धनपालकृत सत्यपुरीय-श्रीमहावीर-उत्साह जिणव जेण दुट्ट कम्म बलवंता मोडिय, __चउ कसाय पसरंत जेण उम्मूल वितोडिय; तिहुयण-जगडण-मयण-सरहि तणु जासु न मिजइ, __इयरनरहि सच्चउरि-वीर सो किम जगडिज्जइ. वरसुरहि पहरंत खंध माहणसिरि तोडहि, फरसु अत्थि गब्भरु य लेवि तरुवारिहि झोडहि; ते तेरिस पाविट्ट दुट्ट आरुटु सुधीरह, नयणिहि पेच्छहि जाव ताव पहरंति न वीरह. ॥२॥ भंजेवि णु सिरिमालदेसु अनु अणहिलवाडउं, चड्डावल्लि सोरटु भग्गु पुणु देउलवाडउं; सोमेसरु सो तेहि भग्गु जणमणआणंदणु, भग्गु न सिरि सच्चरि वीरु सिद्धत्थह नंदणु, Aho! Shrutgyanam
SR No.009882
Book TitleJain Sahitya Sanshodhak Khand 03 Ank 03 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherJain Sahitya Sanshodhak Samaj Puna
Publication Year1924
Total Pages190
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy