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जैन साहित्य संशोधक-परिशिष्ट
[रूह १
तीहां थकी श्री वनसेन सूरी केतलेक दीने विचरता उपगारी छई। तिणे राजाई मरणना भय थकी श्रीवज्रश्रीसोरट देसिं मधुमतिई कपर्दि नामी वणकर वसेंछे, सेनने प्रणमी शालाई पधराव्या । एतलि कपदीई शिला तेहनी घरी आडी १ अनी कुहाडी २ नामी बे स्त्री छई, संहरी प्रसन थई राजादि लोक समक्षि ए गाथा कहेंपिण ते कपरदी तेहनी अभक्ष १ अपय २ ए बिहूनो मांसासी मन्जर आ इकेण चेव गंठिसहिएण । अणाचार जांणी प्रहार रूपें शिक्षा दीई छइं । एहवे सोहं तंतुवाओ ( ३०-१) सुसाहुवाओ सुरो जाओ ।। श्रीवासेन सूरीये ते यणकरनिं दूधीयो दे (२९-१) श्री गुरुने बांदी, कहई, मई श्री भगवान ! किस्था षी बहिभूमि जातां थकां श्रीगूरुई कोमल वचन बोलाव्यो। कर्म कीधा, इम कही, ते तुमह कृपावंत करुणासमुद्र हित कही, रे कपदी ! तु अम्ह पासिं आवी । ते कपदी पिण करी कहो । ते सांभली गुरु कहइं-तें पूर्व भवि मोठः आवी हाथ जोडी उभो रह्यो । एहवई श्री गूमई आगिम पाप कीधा । पिण तेहनी पीत्रतानी हेतुइ सकल कर्म ज्ञान करी दृष्टि दीधी, सुल्लभ बोधी जाण्यो । वली तेहतुं क्षालणई श्री सिद्ध क्षेत्र गिरिदं श्री संघने साहायना आयु घडी २ नुं जांणी गुरु श्रीवज्रसेने कहियों, अहो कारक थाओ। श्री स्वभ परमेश्वरनी भक्तीमा रहओ । कोकिल! तुने महाकष्ट देखिं छई । तूं धर्म करी पच्च- ते श्री वज्र गुरुना वचन सांभली कपर्दी यक्ष हख्यों। खाणनु परमाण कर, जिम कष्ट मिटें । ते कहे, मुज जन्म कृतार्थ हूओ । जे ए. महातिर्थनि भक्ति गृरुनु वचन सांभली विनयवंत कपदी कहें, श्री मुजने उदय आवी । ए तीर्थ किस्यो - गुरु ! ते पनखांणनी मुझने कृपा करो । तिवारें गुरु यत्र बहुकोटिसंख्यासिद्धिमगुः पुंडरीकमुख्यजिनाः । श्री बज्रसेन कहें-- नमो अरिहंताण ' इत्यादि नमस्कार तीर्थानामादिपदं स जयति शत्रुजयगिरीशः ।। १ ।। मुष यक उच्चारी, पट्टी कटी दोरानी गांठी छोडि एक एहवी बहुमानई स्तुति करतो थकों ते व्यंतर श्री ठिकाणे बेठां भोजन १ अनि जल लेवू २ । पछी सिद्धाचली कपदी नामा यक्ष श्री संघने कुशल कारक तीमहीज कटी दोरानी गांठ बांधी । ते गुरु वचन हओ। एतलि विरति मास एकताई कीजई तओ कपदी अंगि करी, ते व्रत उचर्यु । एहवई तिण ओगणत्रीस उपवास कीधानो लाम हुई। काव्यं--- हिज दिने सर्प गरल व्याप्त अमिस खंड तेहनो भोजन यः पूर्वे ततुयायः कृतः सुकृतलबदुरितः पूरितो यत् (१) हुओ । तेहथी ते कप्पी मरण पांम्यो । पञ्चखाण अंगी प्रत्याख्यानप्रभावाद मरमृगदृशा ( ३...२ ) मातिथ्य (२९-२) कन्याथी ते महिमाई अणपन्नी-पणपन्नी यः प्रपेदे । सेवाहवाकशालिप्रथमजिनपदांभोजयोस्तीर्थमध्ये उपनो | अवधि ज्ञानई जाण्यो, पोतानो पाछिला रक्षा-दक्षः श्री यक्षराज: स भवतु भवतां विघ्नमदी भव । नमस्कार सहित पञ्चखाण महिमा मोटो दीसे छ। कपदीः । १ । हवी गुरुइं पञ्चखांण शिषव्यो पहिले भोजनें तूरत मरण
इति कपर्दी संबंध ।। पाम्यो जांणी बिहूं स्त्री मिलि राजाने पुकारिओ-जे इणि हवई श्री वज्रसेन सुरीई वर्ष नव गृहस्थ पणुं भागवू ! महात्माई काइक शीषवी मारीओ । राजाई श्री वज्रसेन वर्ष एक सो अनि साल श्री वा स्वामी गुरुनी सेवा गुरुने राव लेवा बेसा-या । कहे, तुम्हे साधु थई किम एस
शिष्य पणे कीधी । अनि वर्ष त्रिण युगप्रधान पद भोस्त्रीनो स्वामी मायो ? एहवे कपर्दी पोताने ज्ञाने करी गर्ने । सर्व आयु वर्ष एकसओ अनि अठ्ठावीस संपूर्णी, जुई । एतले उपकारी गुरुने कट जांणी गांमप्रमाणे देव श्री वीरमुनि या पछी हपय अनि वीस वर्षे, पुनः श्री शक्तिं पथर शिला निप भावी, आकाशे रहया, सकल विक्रमादित्य थकी ए.कसो अमें आटि व श्री ननसेन लोकनें कहें-ए मूझ गुरु प्रत्ये खमाबी प्रणमा ! नहि तो सूरो स्वर्ग हुआ। आ शिला गांम उपरई पाई छ । ए गूरु मूझ प्रति महा एहये श्रीवीर मुक्ति हूआ पछी पांचसे अनि सीतर
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