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कासगी रह्या छे तिहां आवी । बिहु पगथी मांडी सघलो सरीर भक्षण रूप उपसर्ग कीधो । पिण तें मुनि दृढाचित थकी ध्यान न चल्यो । आयू संपूर्ण उदारीक देह तजी सौधर्म्म राजध्यानीइं नलनीगुल्म विमाने देवनी साहीबीये उपनो ( ११ - २ ) एतले मातायें पूत्र आयु पूर्णि, पिण भंगुर देह जाणी एक सगर्भा बहुने घरें मुकी । एकत्री बहु युक्त भद्रा दीक्षा आराधी देवलोके गयां | बरें सगर्भानें पुत्र जनम्यो तिर्णे पीता दग्ध स्थानके प्रासाद नीपजावी श्रीअवंति नामें श्रीपार्श्वनाथनो बिंब थापी ते सद्गतिनो भजनार हुआ ।
वीर वंशावाले.
हवें सीयालीन संबंध कहें छें – अवंति सुकुमाल पाहिला त्री भवे माछिनो अवतार हुआ । तिहां बिं स्त्री हुति । ते माछियें साधुनो उपदेश सांभली श्रीधर्मं आराधी मरण पांसी नलनी गुल्म विमाने देवपणे उपनो ! तिहांथी चवी कोटीध्वज विवहारीयाने घरें अवंति सुकुमाल नामें पूत्र पणे उपनो । अने वडी स्त्री विभव वणीकपूत्री हुइ । पुन: नाहनी स्त्रीं मरीने अपमांनी हती, ते वाढवी हुइ । तिहां थकी मरण पांमी सीयालजी हूइ । ते वैरे भक्षण रुप महा उपसर्ग साचव्यो । ते पार्श्व बिंब आज दिनताई सप्रभाव उज्जेणी नगरीइ छें । इति अवंति सुकुमाल संबंध छे || १ ॥
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दश पूर्वधारक श्री आर्य सुहस्ती सुरी पुनः (१२ - १ हनो नव दीक्षित भिक्षुक जीव तेहने उपगारी पर्णे हुआ । श्री वीर मोक्षे गया पछी बसें पंचासी वर्षे संप्रति इसइ नमि राजा हुआ । सेहनो संबंध कहें छें । एकदा श्री आर्य सुहस्ती सूरी विहार करतां कोसंबी नगरी वनें वाटिकाई रह्या । शिष्य गुरु आज्ञा लही नगरमाही आहारने उद्यमें गया छे । तिहां दुर्भिक्ष योगें अन्नने अभावें भिक्षुक घणा हुआ । पण साधुनें पण घणें आदरें सरस आहार आपता देषी एक रंक भिक्षुक ते साधु साधे हुओ | आहार लेइ साधु वाटीकाइ आव्या । गुरू आगले आहार आलोई छे एटले रंक पण द्वारि आवी उभो | साधु कहें छे मुंजने ए आहार आपो | गुरु कहें सांधुनो आहार साधु कल्पे, बीजा गृहस्थने न कल्पे । सांभली
कहें, मुजने शिष्य करो | पिण आहार आपो । हूं घणो क्षूधार्ति छु । तिवारें गुरु दशपूर्वजाण छे । तिणें श्रुत उपयोग दीधो । शासन उद्योत कारक जांणी दिक्षा आपीनें आहार पण दीवो । घणा दीन थकी तिनें सरस जांणीनें आहार विशेषे लीधो (१२ - २ ) । निर्बल सरीर थकी तेह रंकाने विसूचिका हूइ । घणी असाता उपनी । उदर पीडा थकी वेंदें । पहेलां जे गृहस्थ भिक्षुक पर्णे, जे आहार न देता घणा तिरस्कार करतां ते गृहस्थ नगर सेठ जेहवा आवी, नव दीक्षीतेने साधु वेष उदय आव्यो जांणः बहूमूल्य औषवादिके विशेष भक्ति वेयावच साचवें । ते देषी रंक साधु मन चिंतवे जे ए धन्य ए चारित्रनें, धन्य ए वेषनें, जेना महिमा थकी एक कोटीध्वज लखेसरी व्यवहारीया बहुमांने करी मुझ भक्ति साचवे छे । एहवा शुभ चारीत्रनी अनुमोदना काल पांनी उजेणी नगरी श्रेणिकने आठमे पाढे कुणाल राजा, ते ओरमान मातानाकपट थकी वर्ष तेरनो चक्षू हीण थयो छें, तेहने घरे बेटा पाणि उपनो । केतक दिने तेहनो जन्म भयो एतले अकस्मात पेटशूल रोग पीडा थकी पीतानो नास हुआ | तुरत ते बालकने लावी पाट तषते बेंसारयो । ते माटे एहनुं नांम संप्रति राजा कहीइं । अनुकमें योवन अवस्थाएं पाम्यो । एहवें केतले दिने श्री आर्यसुहस्ति सूरी ( १३ - १ ) उज्जेणीई चौमासु आव्या । तिहां दीवालीइं जुहार भटारें दिने श्री गोतम केवलोछय महिमाई श्री वीरचैत्ये रथ जात्रा समस्त संघयुक्त महामहे राजरंथे जातां गवाक्षे वातायनि बेठा थकां संप्रति श्री गुरुने देषी, जातिस्मरणे पूर्व भव दीठो | मनस्युं चिंतवे, ए गुरि पहिला रंकने भवें मुजने महा उपकार, दीक्षा देइनें, कीधो छे । एहवो वीचारी गोख थकी उतरी गुरुने वांदी, कहें मुजने तुंमे ओलषो हो ? | गुरु कहे, मालवाधीश प्रबल पून्यनें जगत ओलखे । ते सांभली संप्रति कहें इणहीज नगरनो हु क्षत्री
रंक नव दीक्षित चेलो तुमारो, ते मायें तूंति कृपा करी मुजनें धर्म उपदेश कहो । तिवारें संप्रतिने गुरु कहें अथ श्लोक
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