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धीर वंशावाल.
लीधी। वर्ष वीस श्रीसुधर्मानो विनय शिष्यपणे कीधो। घरे द्रव्यना समुह आव्या जनमुखी जाणी, प्रभवो पो. वर्ष चउमालास युग प्रधान पदें केवली पद भोगवी | ताना समुदायने लेइ रात्रि जबूने घरे द्रव्य हरवान पेठो। छेहला केवली बिरुद धरावी । श्रीवीर स्वमुखें श्रेणिकनें बीजा चोर सघला द्रव्ये बिलगा छे । ऐतले प्रभवो माकहयुं जे पेहला देवलोक थकी आवी इणि सूर्याभदेव ना. लीये चढ्यो, देषे तो रंगमोहले जंबू हस्ते नव परणीत कंकण टिक कीधू ते देवनो जीव छेहलो जबूनामें केवली होसे । बांध्यो छ । संसारने विष सर्व आनेत्य पणु वा आने ए वचनने अनुसार जाणज्यो । सघ (४-१) लो कहे छे । ते उपदेस सांभली जंबू साथै प्रभवें वर्ष त्रास आउषो वर्ष ऐसीनो भोगवी संपूर्ण । प्रभवाने स्वपाटि संसारकपणो भोगवी, श्रीसुधर्मा केवली हस्ते दीक्षा यापि श्रीवीरमुक्ति हुआ पछी वर्ष चोस- श्रीजंबू मोक्ष लीधी। वर्ष चौमालिस श्रीजंबनी सवा. शिष्यपण कोधी हुआ । तत्र
अने वर्ष इग्यार जुग प्रधान पद भोगव्यु | एकदा श्रीप्रभवे बार वरसेहि गोयमो सिद्धो वीराओ वीसहि सुहमो। पोताने पाटें थापवाने अर्थे श्रुतबले करी स्वसंघने विषे चउसट्ठी ए जंबू वुच्छिन्ना तत्थ दस ठाणा || उपयोग देइने जायुं | पिण पाटयाग्य कोइ न दौठो । ते जंबू मोक्ष हुया ते सार्थ उत्तम बोल दस विच्छेद तिवारे पर सासने उपीयोग देवे थके पूर्व दिसें (५-१) ह्या ते कहे छ । यतः
मगध देसें राजगृही नगरें वक्षगोत्रि यजुर्वेदीय यज्ञारंभ मणपरमोहि पूलाए आहारग खवग उवसमे कप्पे । करतो शिय्यभव वाढव वेदकुंभ दीठो | तिहां स्वांशष्य
संयमतिय केवल सिज्झणाय जंबूम्मि बुच्छिन्ना ।। मोकली यज्ञकंडनी खेटी हेठे श्रीश्यांतिबिंब दर्शने करी एतले मुक्तिनां कपाट देता गया । अत्र जंबू उपमा- प्रतिबोध पामी, श्रीपभव पासे दीक्षा लीधी । हवे प्रभव
लोकोत्तर हि सौभाग्यं जंबूस्वामिमहामुनेः । स्वामी सर्वायु वर्ष पंचासीन संपूर्ण पाली श्रीवाग्मुक्ति अद्यापि यं पतिं प्राप्य शिवश्री नान्यमिच्छति ।। हुआ पछी वर्ष पंचोत्तरे श्रीप्रभवस्वामी स्वर्ग हूओ । इति
त्रिजो पाट || ३॥ श्लोक:चित्तं न नीतं वनिता विकारैवित्तं न नीतं चतुरैश्च चोरैः ।
हवें श्री पार्श्वनाथना प्रथम गणधर श्री सुभेय नामें । यद्देहगेहाद् द्वितीयं निशीथे
तस्य शिष्याचार्य श्री हरिदत्त । तस्य शिष्याचार्य श्री जंबूकुमाराय नमोऽस्तु तस्मै ।।
समुद्र स्वामी । तस्य शिष्याचार्य श्री केसी | श्री वीरवारे, इति जंबू संबंध | द्वितीय पाट ।
केसी स्वामी | तस्य शिष्याचार्य श्री स्वयंप्रभसूरि । तस्य ३ तत्पट्टे श्री प्रभवस्वामी।
शिष्याचार्य श्री रत्नपभसूरि प्रगट हुआ । तेहनें श्री वार
मुक्ति पछी वर्ष बावन आचार्य पद हुओ | श्री वीरमुक्ति तेहनो काइक स्वरूप कहे छे । वंध्याचल पर्वतने विधे
| गया पछी वर्ष पच्योत्तरे ओईसा नगरि चामुंडा प्रतितलहटीई जयपूर नगरें कात्यायण गोत्रि जयसेन राजा । बोधी घणा जीवने अभय दान देई साचिल्ल नाम दोधु । तेहनें प्रभवनांमे १ विणयधरनांमे २ बिहू पुत्र छ। ते
त पुनः तेहीज नगरनो स्वामी परमार श्री उपल देव प्रति माहिं पिता गुणे जेष्ट जाणी कनिष्ट जे लघु पूत्रने राज (४-२) दीघू । एतले प्रभवो क्रोधे घरथकी नीकली भी
धर्मोपदेस देई एक लापने नवाणु हाजार गोत्रो (५-२) लनी पाले पल्लिपति पासिं जइ रह्यो । तिणे राजपत्रांणी स्यू प्रतिबोध्या । तिणे श्री पार्श्वनाथ प्रासाद थाप्यो । आदर देइ पांचसे चोरनो स्वामी कीधो । चारसॉ नवाणु एहिज सूरिये प्रतिष्ठयो । तिहाथी उपकेश शाति कहीचोर लेई दुष्टात्मा अति क्रूरपणाथी घणा मनुष्य प्रति वाणी । श्री रत्नप्रभसूरीने उपकेस गच्छ लोक कह्यो । उपद्रव उपजावे पण कोइ वारवा समरथ नहीं। एहवें जंबूने तिहा पोहकरणा मोजग हुआ । इाते चोथो पाट ||४||
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