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जैन साहित्य संशोधक
ते घणे भागे फुजबोले पोताना माषांतरमां कर्यो छे तेवो ज हतो: एटले तस " जे धुजे छे ते " अने थावर " जे बलवान् छे ते. "
गमे तेम हो, पण ए तो स्पष्ट छे के बौद्ध गृहस्थने मात्र जाते हिंसा करवामांथी ज नहीं, परन्तु मत्स्य अथवा मांस वेच।तुं लेवामांथी, तेम ज अन्य रीते पण प्राणी वधने उत्तेजन आपवामांथी पण अलग रहेवानुं कहेवामा आव्युं हतुं. केम के जे माणस मःस्य अथवा मांस खरीदे छे ते माछीमार अथवा कसाईना कार्यने अनुमति आपे छे ज. खरुं जोतां तो ते वधारे (पाप) करे छे. ते" बीजा पासे हिंसा करावे छे " " हिंस्राने उत्तेजन आपे छे " अथवा ( महाभारत १३, ११३, ४० ) भीष्मना शब्दोमां कहीए तो ते “ पोताना पेसा वडे हिंसा करे छे. "
मां
हुं मानुं छं के महावग्ग ( ६, ३१ ) ना उल्लेखमां रहेलो अर्थ आ ज छे. ए स्थळे राजा पवतमंस - एटले कोईए तैयार करेलुं मांस मंगावे छे, जेनुं परिणाम ए आवे छे के बलदना एक घातक तरीके तेनी निंदा कर वामां आवे छे. वळी संयुक्त निकाय ( १४, २५.३) जुओ. त्यां हिंसा करनारा ओ साथेना संसर्गने पण निंदवा मां आव्यो छे. महाभारत ( १३, ११३, ४७ ) कं छे के सात माणसो जीव-भक्षक छे, एटले हिंसानुं पाप करे छे, जेम के–जे माणस ते प्राणी ने लावे छे, जे अनुमाते आवे छे, जे हणे छे, जे वेचे छे, अथवा खरीदे छे, जे मांस तैयार करे छे, अने जे तेने खाय छे. छेला बेने अपवादरूप गणिए तो बुद्धे कहेला नियमोने अनुसरतो ज महाभारतनो - आ उल्लेख छे. जो के बुद्धना अनुयायीओना वर्तन साथे तो ते असंगत छे.
[ खंड १
आपणा आ ऊहापोह उपरथी आपणे ए निश्चय उपर आवशुं के पुराणा बौद्ध धर्ममां भिक्षु मांसाहार कचित् ज करतो, अने गृहस्थ तो तेना करत्नां पण ओछी वखत मांस खातो. केम के गृहस्थ कांई भिक्षा मांगता नहीं. परंतु तेने प्रवास विगेरेना प्रसंग दर्मियान बौद्धेतर वर्ग पासेथी तेवो खोराक लेवामी रजा आपवामां आव हती.
परंतु कोई शंका करे के, जो गृहस्थ मांस वेचातुं पण लई शके नहीं तो भिक्षुओने जे त्रण प्रकारे शुद्ध एवा मांसने लेवानी रजा आपवामां आवी छे, ते मांस क्यांथी आवे ? आना तो उत्तर स्पष्ट छे के बौद्ध साधुओ गमे त्यांथी भिक्षा ग्रहण करता हता; मात्र बुद्धानुयायी पासेथा ज नहीं."
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संपूर्ण अहिंसानुं पालन तो मोदामां मोटा ज्ञानी पुरुषने माटे पण अशक्य छे। अने जेम घणा माणसा धारे छे तेम आ कांई नवी पण शोध नथी. आ विषयमां महाभारतना वनपर्वमांनी धर्मव्याध-भक्तिमान शौनिकनी मनोरंजक वार्ता वांचवा जेवी छे. ना अंकलं छे के 'चालवामां, बेसवामां, सुवामां, खावामां, विगेरे दरेक क्रियामां अने दरेक बाबतमां असंख्य प्राणीओनी हिंसा थाय छे. तेथी जगत्मां कोई अहिंसक नथी. ( नास्ति कश्चिदहिंसकः ) ' आ निर्विवाद सत्य छे. आपणने जीववा माटे जीबनी हिंसा करवी पडे छे, ए आ जीवननी एक अत्यंत दुःखदायक बीना छे; “आ बधुं जीवता प्राणीओथी व्याप्त छे " अने “ आ सर्व जीवता प्राणी ओथी ग्रस्त छे. " ( जीवैर्ग्रस्तंभिदं सर्वं ) ए उल्लेख सत्य छे. तेम छतां पण सर्व अनावश्यक हिंसा - थी बचवानी आपणी फरज छे. ज्यां ज्यां आपणाथी बनी शके त्यां त्यां दुःख उत्पन्न थतुं अटकाववानी अने उत्पन्न थरल दुःखने घटाडवानी आपणी फरज छे. वृद्ध मीष्मना शब्दो ( महाभारत - ११३, ११६,३४ ) ध्यानमां राखवा जोईए के. “ जीवनदानथी अन्य महत्तर दान हतुं नहीं अने थशे नहीं. "
प्राणदानात्परं दानं न भूतो न भविष्यति
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[ आ आखा लेखमां आवेली टीपो आ नीचे एक साथै ज आपी देवामां आवे छे. - संपादक. ] १ शॉपनॉर, ग्रन्डलेज डर मॉरल रेक्लम्, पु० ३, पान ६२३ २. जेकॉबी, जैनसूत्र, पु. २, पा० ३३, ३४. २. जेकॉबी, जैनसूत्र, पु. १, पा. ५
४. चातुर्भोतिक देहवाळा असंख्य आत्माओो छे. एवा घणा दहे एकस्थाने भेगा बाधी ज सेओ दृष्टिगोचर थाथ छे. जेकॉची,
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