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जैन साहित्य संशोधक। जिनेन्द्रने गौतममुनीको प्रमाणसंयुक्त अर्थ कहा । इस परम्परामें और त्रिलोकपज्ञप्तिकी परम्परामें उन्होंने लोहार्यको, लोहार्यने-जिनका नाम सुधर्मा भी है- कोई अन्तर नहीं है । आचार्य गुणभद्रकृत उत्तर-पुराजम्बुस्वामीको कहा । ये तीनों गणधर, गुणसमग्र, और ण, ब्रह्म हेमचन्द्रकृत श्रुत स्कन्ध, और इन्द्रनन्द्रिकृत श्रुतानिर्मल चारज्ञानके धारी थे। ये केवल ज्ञानको प्राप्त वतारमें भी बिलकुल यही परम्परा न्दी हुई है। करके मोक्षको प्राप्त हुए । इनको मैं नमस्कार करता हूं। परन्तु हरिवंशपुराण, नन्दिसंघ-बलात्कार गण--सरस्वतीइनके वाद नन्दि, नन्दिमित्र, अपराजित, गोवर्धन और गच्छकी प्राकृत पट्टावली, सेनगणकी पट्टावली और भद्रबाहु ये पांच पुरुषश्रेष्ठ चौदह पूर्व और बारह अंगके काष्टासंघकी पट्टावलीमें नन्दिकी जगह विष्णु नाम धारक हुए | इनके बाद क्रमसे विशाखाचार्य, प्रोष्ठिल, मिलता है । इसके सिवाय नन्दिसंघकी पूर्वोक्त पट्टावलीमें क्षत्रिय, जय, नाग, सिद्धार्थ, धृतिषेण, विजय, बुद्धिल्ल, और काष्ठासंघकी पट्टावलीमें यशोबाहुके स्थानमें भद्रगंगदेव और धर्मसेन, ये दस पूर्वधारी हुए । फिर बाहु नाम है । जान पडता है नन्दीका नामान्तर विष्णु नक्षत्र, यशः पाल, पाण्डु, ध्रुबसेन, और कंस ये पांच और यशोबाहुका भद्रबाहु भी होगा। ग्यारह अंगके धारक हुए | इनके वाद सुभद्र, यशोभद्र, लोहाचार्य तककी यह गुरुपरम्परा दिगम्बर संप्रदायम यशोबाहु और अन्तिम लोह (लोहाचार्य ) ये आचारां
एकसी मानी जाती है। इसमें कोई मतभेद नहीं है । गके धारक हुए।
परन्तु यह बडे आश्चर्यकी बात है कि श्वेताम्बर संपदायमें इस परम्परासे एक यह विशेष बात मालूम हुई कि जम्बूस्वामी के बाद जो परम्परा मानी जाती है, वह सुधर्मास्वामीका दूसरा नाम लोहार्य भी था । लोहार्य इससे सर्वथा भिन्न है । यद्यपि ये दोनों संप्रदाय वि. नामके एक और भी आचार्य हुए हैं जो आचारांगधारी सं० १३६ के लगभग पृथक् हुए कहे जाते हैं । थे । उन्हें दूसरे लोहाचार्य समझना चाहिए । श्रवण यदि यह समय सही है तो आचारांगधारियों तककी वेल्गोलकी चन्द्रगुप्तवस्तीके 'शिलालेखके- महावीरस- परम्परा दोनों संप्रदायोंमें एकसी होनी चाहिए थी। वितरि परिनिवृते भगवत्परमर्षि गौतमगणधरसाक्षा- या तो यह समय ही ठीक नहीं है-जम्बूस्वामीके बादही च्छिष्य-लोहार्य-जम्बु-xx” आदि वाक्यमें जो यह सम्प्रदाय भेद हो गया होगा, या फिर दोनों से लोहार्यको गौतमगणधारका साक्षात् शिष्य लिक्खा है, किसी एकने अथवा दोनोंने ही पीछेसे भूलमाल जानेउसका भी इससे खुलासा हो जाता है । अभीतक इस पर इन्हें गढा होगा । इतिहासके विद्यार्थिओंके लिये बातका स्पष्ट उल्लेख कहीं भी नहीं मिला था कि सुधर्मा- यह विषय खास तोरसे विचार करने योग्य है । स्वामीका दूसरा नाम लोहार्यभी था ।
१. यह ग्रन्थभी तत्त्वानुशासनादि-संग्रहमें छपा है। १ देखो, जैनसिद्धान्तभास्कर किरण १.
२-३-४ -देखो जैनसिद्धान्तभास्कर, किरण ४ ।
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