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________________ १४५ जंबुद्दीव पण्णाति। द्वीप प्रज्ञप्ति, सूर्यप्रज्ञप्ति, चन्द्रप्रज्ञप्ति आदि उपांग इसमें १३ उद्देश या अध्याय, २४२७ गाथायें और ग्रन्थ करणानुयोगकेही वर्णनसे लबालब भरे हुए हैं। भरत, ऐरावत,पूर्व विदेह, उत्तर विदेह, देवकुरु, उत्तरकुरु, दिगम्बर संप्रदायमें इस विषयका सबसे प्राचीन और लवणसमुद्र, ज्योतिषपटल आदिकावर्णन है। वर्णन विशाल ग्रन्थ त्रिलोकप्रज्ञाप्ति है। इसका और लोकवि- त्रिलोकप्रज्ञप्तिकी अपेक्षा कुछ संक्षिप्त है। भाग ग्रन्थका परिचय हम जैनहितैषी ( भाग १३-अंक इसके कर्ताका नाम सिरिपउमणंदि या श्रीपद्मनान्द १२) में दे चके हैं । त्रैलोक्यसार नामक ग्रन्थ मुल है। वह अपनी गुरुपरम्परा इस प्रकार : प्राकृत और संस्कृत टीका सहित माणिकचन्द्र ग्रन्थ- वीरनान्द, बलनान्द , और पद्मनान्द | अपने लिए मालामें प्रकाशित हो चुका है । आज इस लेखमें हम उन्होंने गुणगणकलित, त्रिदण्डरहित, त्रिशल्यपरिशुद्ध, जम्बुद्दीवपण्णत्तिका परिचय देना चाहते हैं। इसी त्रिगारवरहित, सिद्धान्तपारगामी, तप-नियम-योग-युक्त, नामका और एक ग्रन्थ माथुरसंघान्वयी अमितगति ज्ञानदर्शनचारित्र्योयुक्त और आरम्भकरणरहित विशेषण आचार्यका भी है । अमितगतिने चन्द्रप्रज्ञप्ति और दिये हैं । अपने गुरूओंकी भी उन्होंने ज्ञान और तप सार्द्धद्वयद्वीपप्रज्ञप्ति नामक ग्रन्थ भी इसी विषयपर लिखे आदिके विषयमें प्रशंसा की है । उन्होने ऋषिविजय हैं । परन्तु ये अभीतक हमारे देखनेमें नहीं आये । गुरुके निकट जिनवचन-विनिर्गत सुपरिशुद्ध आगमको जम्बुद्दीवपण्णत्ति नामका एक ग्रन्थ श्वेताम्बर संप्रदाय- श्रवण करके, उनहीके कृपामाहात्म्यसे इस ग्रन्थकी रचना का भी है। इसका संकलन करनेवाले गणधर सुधर्मास्वामी की है । विजयगुरुका विशेष परिचय वे नहीं देते, इससे कहे जाते हैं । यह छठ्ठा उपांग है और आगमग्रन्थोंकी उनकी गुरुपरम्परापर कोई प्रकाश नहीं पडता | माघनन्दी शैलीसे लिखा हुआ है | इसकी श्लोक संख्या ४१४६ नामके एक विख्यात आचार्य थे जो राग-द्वेष-मोहसे रहित, है । मुर्शिदाबाद के राय धनपतिसिंह बहादुरके द्वारा यह श्रुतसागरके पारगामी, प्रगल्भ मतिमान्, और तपःसंयम वाचनाचार्य रामचन्द्र गणिकृत संस्कृत टीका और -संपन्न थे । उनके शिष्य सकलचन्द्र गुरु हुये, जो ऋषि चंद्रभाणजीकृत भाषा टीका सहित छप नव नियमों और शीलका पालन करते थे, गुणी थे चुका है। और सिद्धान्त महोदधिमें जिन्होंने अपने पापोंको घोडाला दिगम्बरसम्प्रदायी जम्बुद्दीवपण्णत्तिकी दो प्रतियां था। इनके शिष्य नेन्दिगुरुके लिए-जो सम्यग्दर्शन-ज्ञानहमने देखी हैं; एक स्वर्गीय दानवीर शेठ माणिकचन्द्रजीके चारित्र्यसम्पन्न थे--यह ग्रन्थ बनाया गया है। चौपाटीके ग्रन्थभाण्डारमें है और दूसरी पूनेके आचार्य पद्मनन्दि जिस उमय बारानगरमें थे, उस भांडारकर ओरिएन्टल रीसर्च इन्स्टिट्थटमें | पहली समय यह ग्रन्थ रचा गया है | इस नगरकी प्रशंसामें प्रति सावन वदि १२ सं० १९६० की लिखी लिखा है कि उसमें वापिकायें, तालाब, और मुवन बहुत हुई है और इसे सेठजीने अजमेरसे लिखवाकर मँग- थे, भिन्नभिन्न प्रकारके लोगोंसे वह भरा हुआ था, "वाई थी । दूसरी प्रतीपर उसके लिखे हुएका समय नहीं बहुतही रम्य था, धनधान्यसे परिपूर्ण था, सम्यग्दृष्टिदिया है। परन्तु वह कुछ प्राचीन मालूम होती है ! जनोंसे, मुनियोंके समूहसे, और जैन मंदिरोंसे विभूषित यह ग्रन्थ प्राकृत भाषामें है और गाथाबद्ध है। था । यह नगर पारियत्त ( पारियात्र ) नामक देशके १ इसके कर्ता श्रीयतिवृषभाचार्य हैं, और इसकी रचना लग- १ पुराणसारके कर्ता श्रीचन्द्रमुनि-जो वि. सं. १०७० के भग १००० वीरनिर्वाणसंवतू में हुई है। करीब हुए हैं-अपने गुरूका नाम श्रीनन्दिलिखते हैं। वे इनसे २ इसके कर्ता मुनि सर्वनन्दि है और यह शक संवत् ३८० में पृथक व्यक्ति जान पड़ते हैं। वसुनन्दि आचार्यकी गुरुपरम्परामे लिखा गया है । इस ग्रन्थका संस्कृत अनुवाद उपलब्ध है। भी एक श्रीनन्दि है। Aho Shrutgyanam
SR No.009878
Book TitleJain Sahitya Sanshodhak Khand 01 Ank 03 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherJain Sahitya Sanshodhak Samaj Puna
Publication Year1922
Total Pages252
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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