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________________ १४२ जैन साहित्य संशोधक। [खो होता है कि नेमिचन्द्रने इसकी रचना की है ।" हम तर उन्नतिको ध्येय मानता है, और इसी लक्ष्यसे समझते हैं, इस स्थानपर नेमिचन्द्रके ग्रन्थोंका संक्षिप्त उसने गोम्मटसारमें जैन-आचार्योंके सिद्धान्तोंका सार वृत्तान्त दे देना उत्तम होगा । दिया है । साधारण रूपसे इस ग्रन्थमें जैन-दर्शन शास्त्रके गोम्मटसार । मुख्य मुख्य सिद्धान्तोंका समावेश है । इसका नाम गोम्मटसार पडनेका कारण यह है कि गोम्मटसारके भाष्य । यह चामुण्डरायके पठनार्थ लिखा गया था, और हम स्वयं चामुण्डरायने कानडी माषामें गोम्मटसारकी बतला चुके हैं कि चामुण्डरायका दूसरा नाम गोम्मटराय एक टीका रची थी । गोम्मटसारके अन्तिम श्लोकमें था । इस ग्रन्थको पञ्चसंग्रह भी कहते हैं क्योंकि इस बातका उल्लेख है कि चामुण्डरायने सर्व साधारणकी इसमें इन पाँच बातोंका वर्णन दिया है (१) बन्ध भाषामें वीर-मार्तण्डी नाम्नी एक टीका रची। चामुण्ड(२) बध्यमान (३) बन्धस्वामी (४) बन्धहेतु रायकी एक उपाधि-वीर-मार्तण्ड थी, इस लिए उसने और (५) बन्ध-भेद । अपनी टीकाका नाम रखा 'वीर-मार्तण्डी' अर्थात वीरयह ग्रन्थ प्राकृतमें है और इसमें १७०५ श्लोक हैं। मार्तण्डकी रची हुई । चामुण्डरायकी उक्त टीका अब अप्राप्य इसके दो माग हैं जिनके नाम हैं जीवकाण्ड और है, अन्य एक दूसरी टीकामें अब केवल इसका उल्लेख कर्मकाण्ड । इनमें मानुसार ७३३ और ९७२ श्लोक मात्र है, जिसका नाम है केशववीया वृत्ति, ( अर्थात् हैं । जीवकाण्डमें मार्गणा, गुणस्थान, जीव, पर्याप्ति, केशववणी रचित ) । उसके प्रथम श्लोकमें लिखा है प्राण, संज्ञा, और उपयोगका वर्णन है । कर्मकाण्डमें ९ “ मैं कर्नाटक-वृत्तिके आधारपर गोम्मटसारकी वृत्ति अध्याय हैं, जिनके नाम हैं--प्रकृतिसमुत्कीर्तन, बन्धो- लिख रहा हूं।"" गोम्मटसारपर एक और टीका है दयसत्त्व, सत्त्वस्थानभंग, त्रिचूलिका, स्थानसमुत्कीर्तन, जिसका नाम है मन्द-प्रबोधिका, और जिसके टीकाकार प्रत्यय, भवचूलिका, त्रिकरणचूलिका, और कर्मस्थिति- हैं अभयचन्द्र । इन्हीं टीकाओंके आधारपर टोडररचना । आठ प्रकारके कर्म और कर्मबन्धका अपनी मलने हिन्दी भाषामें एक टीका लिखी है, जिसका अपनी प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशके साथ वर्तमान समयके जैन-पंडितोंमें बहुत प्रचार है । सविस्तर वर्णन भी दिया हुआ है । कर्मके सम्बन्धके नेमिचन्द्रके गुरु ।। अन्य अनेक विषयोंका भी इसमें वर्णन है । संक्षेपसे गोम्मटसारमें अनेक मुनियोंके नाम दिये हैं जिनको गोम्मटसारके प्रथम भागमें जीवोंके स्वाभाविक गुण, नेमिचन्द्र आचार्य कहकर वन्दना करता है । वे नाम और उनकी उन्नतिके उपायों और उपकरणोंका वर्णन इस प्रकार हैं:-अभयनन्दि, इन्द्रनन्दि, वीरनन्दि, है। और दूसरे मागमें उन कर्मबन्ध उत्पन्न करनेवाली ___ ४७ गोम्मटसुत्तल्लिहणे गोम्मटरायेण या कया देसी । अडचणोंका वर्णन है, जिनके निवारण करनेसे जीवोंको । सो राओ चिरं कालं णामेण य वीरमत्तण्डी ।। मुक्ति प्राप्त होती है । ग्रन्थकर्ता सर्वदा जीवकी उत्तरो (गोम्मटसार कर्मकाण्ड, गाथा ९७२) ४५ सिदं तुदयतडुग्गयणिम्मलवरणमिचंद करकालिया। ४८ नेमिचन्द्रं जिनं नत्वा सिद्धं श्रीज्ञानभूषणम् । गुणरयणभूसणं बुहिमइवेला भरउ भुवणयलं ।। वृत्तिं गोम्मटसारस्य कुर्वे कर्णाटवृत्तितः ॥ _(गोम्मटसार, कर्मकांड, गाथा ९६७) (केशववीयावृत्ति) ४६ ' श्रीमच्चामुण्डराय प्रश्नानुरूपं गोम्मटसारनामधेयं ४९ मुनि सिद्धं प्रणम्याहं नेमिचन्द्रं जिनेश्वरम् । पञ्चसंग्रहशास्त्रं प्रारंभमानः ।" टीका गोम्मटसारस्य कुर्वे मन्दप्रबोधिकाम || (अभयचन्द्ररचित गोम्मरसारवृत्ति) ( अभयदेवकी वृत्ति ) Aho ! Shrutgyanam
SR No.009878
Book TitleJain Sahitya Sanshodhak Khand 01 Ank 03 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherJain Sahitya Sanshodhak Samaj Puna
Publication Year1922
Total Pages252
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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