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________________ इसे अवश्य पढिए यह पत्र कोई कमाई के लिये नहीं निकाला जाता, केवल साहित्य के प्रकाशनार्थ ही निकाला जैन साहित्य संशोधक का दूसरा अंक कार्तिक जाता है। इसका खर्च कोई ग्राहकोंकी फीससे महिने में प्रकट हुआ था और यह तीसरा अंक पूरा नहीं होता । ग्राहकोंकी जितनी फी माती है ६ महिने बाद ज्येष्ठमें प्रकाशित होता है । जै. उससे तो तिगुनासे भी अधिक खर्च इस सं. सा.सं. त्रैमासिक है इस लिए प्रति तीन महिनेमे स्थाको गाउका जोडना पडता है । यदि सारा प्रकाशित होना आवश्यक है और यदि समयपर खर्च ग्राहको ही की जिम्मेवारी पर रखकर इस न निकले तो ग्राहकोका उस बारेमें सकाजा करना प्रकाशित करना हो तब तो इसका मूल्य ५ भी व्याजिब है। परंतु जिन कई प्रकारकी अड. रूपयेकी बनिस्बत 'इन्डियन एंटिक्वेरी' आदि चनौके कारण हम अभी तक इसको समयपर जर्नलीकी तरह २० रूपये वार्षिक रखना पडे । नहीं निकाल सके उनका खयाल यदि हमारे विज्ञ परंतु जैन समाजमे ऐसे विषयोंके जिज्ञासुओंकी पाठकोंको हो तो वे हमें अवश्य इस बारेमें क्षमा उत्कंडाका जब स्त्रयाल किया जाय तो शायद एक प्रदान करेंगे। भी जिज्ञासु वैसा नहीं निकलेगा जो २० रूपये वार्षिक दे कर इसका ग्राहक बने | इससे पाठक पत्रके संपादक मुनिजीका आजकल अधिक समझ सकेंगे कि जैन साहित्य संशोधककी क्या रहना अमदाबाद होता है । उनके शिरपर, गुज- परिस्थिति है। रातके राष्ट्रीय विद्यापीठ की एक नहीं पर दो दो संस्थाओंका कार्यभार रहा हुआ है-वे 'गुजरात यद्यपि परिस्थिति विकट है, तो भी हम अब पुरातत्त्व मंदिर' और 'आर्यविद्या मंदिर' नामक इसे समयपर प्रकाशित करनेकी कोशीशमें अवश्य महत्त्वकी संस्थाओके 'आचार्य' बनाये गये हैं, लगे हुए हैं ही। उम्मीद है कि ४ था अंक पाठइस लिए वहांके कामको संभालना उनका प्रथम को हाथमै जल्दी ही पहुंच जायगा-क्यों कि कर्तव्य है । जब वहांके कामसे कुछ फुर्सद मिलती इस अंककी छपाई पूरी होते ही अगले की छपाई है तब वे यहां (पूने ) आ कर इस पत्रका काम शुरू करदी गई है। शुरू करते हैं । यह पत्र इतना बड़ा है कि इससे - छपने में कमसे कम दो-ढाई महिने लगते हैं। इस अंकमें स्थानाभावसे हिन्दी लेख बिल्कुल सो भी प्रेसवालोंकी कृपा होती है तो-नहीं तो नहीं आ सके इस लिए अगले अंकमै वे ही लेख इससे भी ज्यादह समय लग जाता है। इस लिए अधिक दिये जायंगे। यथासमय पत्र नहीं निकल सके तो उसमें हमाग कोई इलाज नहीं ऐसा समझना चाहिए। इस अंकमै जो एक पुगनी पट्टावालि दी गई है वह बहुत महत्त्वकी और अपूर्व है । उसको बडे दूसरी बात यह है कि इस प्रकारके पत्र सभी परिश्रमके साथ छपानी पदी है। पाठक उसे खूब इसी तरह विलंबसे निकला करते हैं। हमारे ध्यान दे कर पढ़ें | पहल दफह पढनेमें अवश्य पत्रकी तो बात जाने दीजिए; खुइ गवर्मेटेकी जरा कुछ कठिनता पडेगी; क्यों कि उसकी भाषा ओरसे प्रकाशित होनेवाले 'इन्डियन पंक्वेिरी' जो है सो पुरानी गुजराती है और कुछ विलक्षण और 'एपिग्राफिया इन्डिका' जैसे जगप्रसिद्ध भा है । परंतु मननपूर्वक पढने से उसका मतलब जर्नलस भी कभी कभी १२ महिने जितने 'लेईट' सब ठीक समझमे आ जायगा। छपते हैं। निवेदकव्यवस्थापक-जै. सा. सं. Aho! Shrutgyanam
SR No.009878
Book TitleJain Sahitya Sanshodhak Khand 01 Ank 03 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherJain Sahitya Sanshodhak Samaj Puna
Publication Year1922
Total Pages252
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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